जाति अत्याचार और सोशल मीडिया
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The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.
दलितों के खिलाफ अत्याचार की घटनाएं जिस तरह से सामने आ रही हैं, उनसे दशकों पहले बीआर अंबेडकर द्वारा कही गई बातें सच साबित हो रही हैं। उन्होंने ये सवाल उठाया था कि अत्याचार अछूतों के खिलाफ ही क्यों होता है। आज भी ये चीजें अधिक हो रही हैं। इन अत्याचारों को एक ऐसी घटना बना दिया गया है जिन्हें आयोजित किया जाता है और जिन्हें देखकर लुत्फ उठाया जाता है। इसके जरिए एक जाति पर दूसरी जाति के प्रभुत्व को भी स्थापित करने की कोशिश होती है। दलित महिलाओं और पुरुषों को नंगा करके घूमाने में विचित्र आनंद तलाशने की कोशिश होती है तो सार्वजनिक तौर पर दलितों को मारने से प्रभुत्व वाले जातियों की सामाजिक श्रेष्ठता सिद्ध करने की कोशिश होती है। सोशल मीडिया की वजह से यह संभव हो पाया है कि जातिगत अत्याचार की घटनाओं को उत्सव बना दिया जाए।
सोशल मीडिया के आने के पहले 2004 के आसपास तक जातिगत अत्याचार की घटनाएं प्रिंट मीडिया में प्रकाशित होती थीं और इनके आधार पर इन घटनाएं की भयावहता को लेकर कल्पना की जाती थी। दलितों में इन अत्याचारों पर एक सामूहिक सोच इस आधार पर विकसित होती थी। इससे दलितों की सामाजिक परिकल्पना भी बढ़ी। सोशल मीडिया के आने से इसका प्रभाव पीड़ितों के साथ-साथ उत्पीड़कों पर भी दिख रहा है।
पीड़ितों की भयावह तस्वीरें सोशल मीडिया के जरिए साझा की जाती हैं। इसके जरिए उस व्यक्ति और उस व्यक्ति के सामाजिक वर्ग का मनोबल तोड़ने की कोशिश की जाती है। इससे उस व्यक्ति और सामाजिक वर्ग में खुद को कम करके आंकने का भाव विकसित होता है। गुजरात के उना और राजस्थान के नागौर की घटनाओं की तस्वीरें और वीडियो को सोशल मीडिया के जरिए साझा करना इसकी पुष्टि करता है। इससे दलितों में जहां एक तरफ खुद को लेकर संदेह पैदा होता है तो अगड़ी जातियों में अभिमान पैदा होता है।
कई वजहों में ये भी एक वजह है जिसके कारण ऐसी घटनाओं के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने से दलित झिझकते हैं। अंबेडकर के राजनीतिक दौर से ही आत्मसम्मान को लेकर दलितों को एकजुट करने की कोशिश होती आई है। एक बार फिर से यह नव-उदारवादी दौर में एकजुट करने वाला मुद्दा बन रहा है। नव-उदारवादी राजनीतिक अर्थव्यवस्था और इसके आपसी संबंधों पर ईपीडब्ल्यू के 2 सितंबर, 2017 के अंक में घनश्याम शाह ने ‘नियो-लिबरल पाॅलिटिकल इकाॅनोमी ऐंड सोशल टेंशन’ शीर्षक से एक लेख लिखा था।
सोशल मीडिया के बारे में माना जाता है कि यह एक बार फिर से जातिगत प्रभुत्व को स्थापित कर रहा है। प्रभावशाली जातियां इसका अधिक प्रभावी ढंग से इस्तेमाल कर पा रही हैं। यही मीडिया काबू से बाहर होकर बुरे परिणाम ला रहा है। नागौर पुलिस के बयान से स्पष्ट है कि इस मामले में पुलिस ने एक वायरल वीडियो को आधार बनाकर एफआईआर दर्ज किया। हालांकि, दलित प्रदर्शनकारियों का आरोप है कि पुलिस ने ही अगड़ी जातियों को उत्साहित करके इस मामले में जवाबी एफआईआर दलितों के खिलाफ दर्ज कराया। इसमें दलितों पर चोरी के आरोप लगाए गए।
इससे दर्ज एफआईआर में विविधता आ गई है। कई एफआईआर दर्ज होने से जातिगत अत्याचार का मामला पीछे छूट जाने की आशंका है। पुलिस और अदालत की प्रक्रियाओं में यह मामला कहीं खो सकता है। पुलिस प्रक्रियाओं का हवाला देकर आरोपितों का एफआईआर दर्ज करने को सही ठहरा सकती है। लेकिन इससे उन्हें भी अपने ढंग से सच को तोड़ने-मरोड़ने का अवसर मिल जाएगा। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि दलितों ने जो एफआईआर दर्ज कराई है, वह सही है लेकिन अगड़ी जातियों के लोगों ने जो एफआईआर दर्ज कराई है, वह भी अनिवार्य तौर पर गलत नहीं है। जवाबी एफआईआर दर्ज होने से सच के अस्पष्टता में बदलने की आशंका है। अत्याचार सिर्फ विचारों में सीमित हो सकता है और कानूनी प्रक्रियाओं के बाद ही सच स्थापित हो पाएगा। मामला के न्यायपालिका के अधीन होने से दलितों का ही नुकसान होगा। क्योंकि लंबे समय तक चलने वाली अदालती प्रक्रियाओं में टिके रहने भर सामथ्र्य और संसाधन उनके पास नहीं है।