दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे की राजनीति
सरकारी मशीनरी की नाकामी से लोगों की जान गई और संपत्तियों का नुकसान हुआ
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दिल्ली के कुछ हिस्सों में जो हिंसा हुई वह विकट मानवीय त्रासदी थी। इससे हमारे देश के सामने मौजूद नैतिक और राजनीतिक संकट का भी पता चलता है। अब तक उत्तर-पूर्वी दिल्ली से 38 लोगों की जान जाने और सैंकड़ों लोगों के गंभीर रूप से घायल होने की खबर मिली है। एक खास समुदाय के मानवीय और भौतिक नुकसान का आकलन नहीं किया जा सकता लेकिन सत्ताधारी दल दूसरे समुदाय को हुए नुकसानों को उठाकर आपसी वैमनस्य को और बढ़ाने की कोशिश कर रही है।
भारतीय जनता पार्टी के एक नेता जाफराबाद में नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करने वालों के खिलाफ भड़काने वाला भाषण देकर मामले को सुलगाने का काम किया। दिल्ली चुनावों के दौरान प्रचार अभियान में भी भाजपा ने नफरत का माहौल बनाने का काम किया था। केंद्रीय गृह मंत्री ने उन्हीं इलाकों में नफरत पैदा करने वाले संकेतों से भरे भाषण दिए थे जो क्षेत्र दंगे से सबसे अधिक प्रभावित हुए। भाजपा ने जिन आठ सीटों पर जीत हासिल की, उनमें से पांच इसी क्षेत्र में हैं। इससे पता चलता है कि भाजपा के बांटने वाले एजेंडे को इस क्षेत्र में किस तरह से स्वीकार किया गया। क्या इसमें कोई संबंध नहीं है कि ‘गोली मारो’ का नारा दिया गया और हर तीसरा व्यक्ति गोली लगने से घायल हुआ है? इस बात का उल्लेख जरूरी है कि सीएए और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के खिलाफ विरोध करने वालों के बहाने सरकार मुस्लिम समुदाय को निशाने पर ले रही है। वैचारिक तौर पर बनाए गए इस माहौल और जिस तरह से इन दंगों के दौरान पुलिस और प्रशासन की भूमिका रही, उसे देखते हुए केंद्र सरकार की भूमिका पर सवाल उठते हैं। क्योंकि दिल्ली पुलिस का नियंत्रण केंद्रीय गृह मंत्रालय के पास है।
इन दंगों के दौरान दिल्ली पुलिस की भूमिका कहीं चुप्पी वाली रही तो कहीं दंगाइयों की मदद करने वाली। सांप्रदायिक नारेबाजी कर रहे हिंसक भीड़ का बचाव करती हुई पुलिस दिखी। पुलिस एक खास समुदाय के घायल लोगों को पिटती हुई और उन्हें राष्ट्र गान गाने के लिए कहती हुई भी दिखी। पुलिस ने एंबुलेंस को भी गंभीर तौर पर घायल लोगों तक पहुंचने से रोका। इससे पता चलता है कि पुलिस ने कानून की रक्षा का काम नहीं किया। यह खबर भी आ रही है कि पुलिस ने उस खुफिया रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं की जिसमें दिल्ली में हिंसक घटनाओं की आशंका व्यक्त की गई थी। जब एक भाजपा नेता भड़काने वाले भाषण दे रहे थे और जिसके बाद हिंसा शुरू हो गई तो उस वक्त दिल्ली पुलिस के लोग उसके पास खड़े थे। अगर दिल्ली पुलिस आदेशों का पालन कर रही थी तो इससे केंद्रीय गृह मंत्रालय और गृह मंत्री का कसूर दिखता है। गृह मंत्री अभी चुप हैं। ये कहना उचित नहीं है कि स्थिति को काबू में करने के लिए पर्याप्त सुरक्षा बल की उपलब्धता नहीं थी। क्योंकि ऐसी स्थिति में अर्द्धसैनिक बलों और सैन्य बलों को तैनात करने का विकल्प था। ये तथ्य और सत्ता के शीर्ष पर बैठी जोड़ी के ट्रैक रिकाॅर्ड को देखते हुए मौजूदा सरकार की इच्छाओं पर संदेह पैदा होता है।
इस तरह के संदेहों को बल देने का काम सरकार उन लोगों को बचाव की कोशिश करके कर रही है जिन्होंने अपने भाषणों के जरिए हिंसा भड़काने का काम किया। यह कानून के राज के साथ खिलवाड़ ही लगता है कि ऐसे लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज होने में देरी के मामले में इनके बचाव के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में देश के दूसरे सबसे वरिष्ठ कानूनी अधिकारी उतर आए। जिस जज ने एफआईआर दर्ज होने में देरी और पुलिस की भूमिका पर सवाल उठाए थे, उसका जल्दबाजी में स्थानांतरण कर दिया गया। नई पीठ ने एफआईआर दर्ज होने में हुई देरी को स्वीकार कर लिया। यह न्याय देने से इनकार करने के समान है। इससे यह भी पता चलता है कि किस तरह से सत्ताधारी दल के लोगों को बचाया जा रहा है। इस हिंसा की जांच भी वे अधिकारी ही करेंगे जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया की हिंसा की घटनाओं में जांच की वजह से कुख्यात हुए। इससे सत्य और न्याय के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता पर संदेह पैदा होता है।
हालांकि, इन मूल्यों के प्रति सत्ताधारी दल की प्रतिबद्धता हमेशा संदेहों के घेरे में रही है। लेकिन हालिया संकट में दिल्ली सरकार और इसके राजनीतिक नेतृत्व के रुख से भी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत महसूस होती है। इस स्थिति से निपटने की प्रशासनिक क्षमता इसके पास नहीं थी। लेकिन फिर भी ये लोग नैतिक और राजनीतिक तौर पर आगे बढ़कर शांति और समरसता स्थापित करने की कोशिश कर सकते थे। अगर इंसानी जिंदगियों को बचाने की कोशिश नहीं हो तो फिर प्रचंड जनादेश का क्या मतलब है? प्रभावित इलाकों में पहुंचकर केंद्र सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश की जा सकती थी। आम आदमी पार्टी जिस तरह से कम सक्रिय दिखी उससे पता चलता है कि सत्ताधारी दल जिस तरह की वैचारिक चुनौती पेश कर रही है, उसमें व्यावहारिकता की अपनी सीमा है। जो ताकतें सांप्रदायिक विभाजन के विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध हैं, वे खुद को अपनी विचारधारा को इस आधार पर मजबूत करते हुए खुद को योद्धा साबित करने में लगे रहते हैं। इस मामले में केंद्र सरकार की प्रशासनिक क्षमताओं की घोर नाकामी स्पष्ट दिखती है। इससे इसका विभाजनकारी एजेंडा भी स्पष्ट रूप में सामने आ रहा है। इसे चुनौती देने के लिए विपक्षी ताकतों को फौरी तौर पर लोगों को एकता और समरसता के मसले पर एकजुट करने के काम में जुट जाना चाहिए।