उदारवादी विचारों का उपकरणात्मक उपयोग
.
The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.
यह हमेशा से पेचीदा रहा है कि कैसे सांप्रदायिक, संकीर्ण और उदारवादी विचारधारा के बीच के अंतर को समझा जाए। ये सभी एक-दूसरे से अलग हैं। हालांकि, सांप्रदायिक विचारों के आधार पर समाज को समझना संभव नहीं है। इस विचारधारा को मानने वाले लोगों की संवाद में शामिल होने की कोई इच्छा नहीं रहती। इसके बगैर वे समाज को नैतिक रुख देना चाहते हैं। ये लोग जाति के सच को भी नहीं समझना चाहते। जाहिर है कि जब इस तरह की सामाजिक हकीकतों को ये नहीं समझेंगे तो फिर जातिगत भेदभाव को भी ये समझ नहीं पाएंगे। समाज को बराबरी के आधार पर भी ये लोग नहीं देखना चाहते। ऐसे में सांप्रदायिक विचारधारा और उदारवादी विचारों के संबंधों को इस पृष्ठभूमि में समझना दिलचस्प होगा।
मूल प्रश्न यह है कि क्या सांप्रदायिक और संकीण विचारधारा अक्सर उदार विचारों के खिलाफ रहती है? इस सवाल का जवाब सुदिप्त कविराज ने इकाॅनोमिक ऐंड पाॅलिटिकल वीकली के 14 दिसंबर, 2013 के अंक में अपने लेख ‘लैंग्वेजेज आॅफ सेकुलिरिटी’ में दिया है। कविराज इसमें कहते हैं कि उदारवाद के विरोधी भारत की दो विचारधाराओं वामपंथ और हिंदू राष्ट्रवादियों ने इसके प्रति अपने विरोध को धीरे-धीरे कम किया है और इन्हें अपने ढंग से इस्तेमाल करना शुरू किया है। हाल के दशकों में भारत में यह देखा गया है कि वाम दल संविधान के उदारवादी मूल्यों का समर्थन कर रहे हैं। लेकिन यह कम दिलचस्प है क्योंकि वाम क्रांतिकारी रणनीति के तहत दो कदम पीछे हटना सामान्य है।
कविराज अपने लेख में एक और दिलचस्प बात उठाते हैं। वे कहते हैं कि हिंदू राष्ट्रवाद को ऐसे मुद्दों की तलाश करनी है जो जाति और क्षेत्रीय एकजुटता जैसे मुद्दों का मुकाबला कर सकें। इन दोनों मुद्दों में भेदभाव से लड़ने की बात निहित है। हिंदू राष्ट्रवादियों ने खुद को भेदभाव का शिकार बताने की रणनीति पर काम किया। पहला काम ये हुआ कि इन लोगों ने मुस्लिमों से ‘खतरे’ की बात की। कविराज इसे रहस्यमयी बताते हैं क्योंकि अधिकांश मुस्लिम शैक्षणिक और आर्थिक तौर पर पिछड़े हुए हैं। हिंदू राष्ट्रवादियों ने दूसरा काम यह किया कि अपने भेदभाव को दलितों के भेदभाव के बराबर ले जाकर खड़ा करने की कोशिश की। ऐसा करके इन लोगों ने अपने उदारवादी परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए उदारवादी विचार की ताकतों का इस्तेमाल किया।
हिंदू राष्ट्रवादियों ने ये कहना शुरू किया कि जिस तरह से दलित और पिछड़ी जातियां अन्याय का शिकार हुई हैं, उसी तरह से मुस्लिम शासकों ने उन पर भी अत्याचार किए हैं। कविराज के विचारों का सहारा लेते हुए हम इस ऐतिहासिक अन्याय की कड़ियों को खोल सकते हैं। इसमें यह बात समझना होगा कि अत्याचार सिर्फ मुस्लिम शासकों ने नहीं किया बल्कि अगड़ी जातियों के शासकों ने भी किया है। पिछड़ी जातियां पीड़ित रही हैं। ऐतिहासिक अन्याय के संदर्भ में यह समझना होगा कि नीतिगत हस्तक्षेप से इस अन्याय को दूर किया जा सकता है। लेकिन क्या ये कहा जा सकता है कि दलितों के खिलाफ जो ऐतिहासिक अन्याय हुआ है, उन्हें दूर करने के लिए पर्याप्त नीतिगत उपाय भारत सरकार ने किए हैं? इसलिए हिंदुओं के ऐतिहासिक अन्याय की बात करना भ्रामक है। इस बात का उल्लेख दिलचस्प है कि मौजूदा वक्त में हिंदुत्व की ताकतों को अभी उदारवाद की भाषा की जरूरत नहीं है। दरअसल, इनमें से कुछ को तो उदारवादी विचारों से काफी दिक्कत है। ऐसे लोगों के लिए उदारवादी विचार ऐसे उपकरण की तरह हैं जिनके जरिए ये लोकतांत्रिक आवाजों को दबाने का काम कर सकें। इसलिए हिंदुत्व के बारे में कहा जा सकता है कि इसमें उदारवादी विचारों का उपकरणात्मक महत्व तक नहीं है।