चुनावी लोकतंत्र और बढ़ी हुई सामाजिक प्रतिष्ठा
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हाल ही में आए दिल्ली विधानसभा चुनावों के परिणाम ये बताते हैं कि किस तरह से ही चुनावी लोकतंत्र चल सकता है। इससे यह भी पता चलता है कि विकास के एजेंडे पर लोकतंत्र किस तरह से चल सकता है। दिल्ली के चुनाव परिणाम ने यह भी बताया है कि कैसे विकास के एजेंडे पर वैमनस्य वाले विभाजनकारी एजेंडे की कोशिश को परास्त किया जा सकता है। दिल्ली विधानसभा चुनाव ने यह दिखाया कि विकास और धर्मनिरपेक्षता का एजेंडा वर्ग विभेद के एजेंडे से अधिक प्रभावी है और इसी वजह से आम आदमी पार्टी को इतनी बड़ी जीत मिली है।
महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनावों ने भी दिखाया कि सांप्रदायिक धु्रवीकरण की राजनीति की अपनी एक सीमा है। इन परिणामों से यह भी पता चलता है कि पेयजल, बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी कार्यों पर ध्यान देने को जनता तरजीह दे रही है। इस तरह के बदलाव की स्थिति में राजनीति दलों में यह नैतिक बल होना चाहिए कि वे इन बदलावों को स्वीकार करके अपनी राजनीति में इस तरह से बदलाव ला सकें। पार्टियों को सरकार और सामाजिक खर्च पर एक बेहतर संबंध स्थापित करना होगा। इस तरह की जिम्मेदारी और इनके अंतरसंबंधों को अभिजित बनर्जी, एमोरी गेथिन और थाॅमस पिकेटी ने 16 मार्च, 2019 को ईपीडब्ल्यू में प्रकाशित अपने लेख ‘ग्रोइंग क्लिवेजेज इन इंडिया?ः इविडेंस फ्राॅम दि चेंजिंग स्ट्रक्चर आॅफ इलेक्टोरेट्स, 1962-2014’ में ठीक ढंग से उठाया था।
इस लेख में लेखकों ने ‘सामाजिक’ के निहित और स्पष्ट दोनों अर्थों को उठाया था। इसमें स्पष्ट अर्थों में सामाजिक को परिभाषित करते हुए कहा गया था कि मतदाताओं की पहचान राजनीतिक दलों ने जाति के आधार पर की और इस लिहाज से उनका ध्रुवीकरण किया। इसका मतलब यह हुआ कि राजनीतिक दलों ने सामाजिक को बेहद संकुचित दायरे में देखा। राजनीति दलों ने जिम्मेदारियों के निर्वहन से खुद को दूर रखा। विकास, शिक्षा, रोजगार और आमदनी जैसे मसलों को अधिक तरजीह नहीं दी। लेकिन झारखंड और दिल्ली विधानसभा चुनावों के परिणाम ने शिक्षा और विकास के संबंधों को रेखांकित करने का काम किया है।
इस लेख का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इसमें यह बताया गया कि सामाजिक का संबंध किस तरह से चुनावी ध्रुवीकरण से है। इसमें बताया गया है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग स्वाभाविक तौर पर दक्षिणपंथी राजनीति की ओर नहीं जाते बल्कि वे मध्य-वाम और वामपंथी पार्टियों की ओर झुके होते हैं। 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में एक बार फिर यह साबित हुआ।
इस लेख में यह भी बताया गया कि वैसे मतदाता भी हैं जो विचारधारा के स्तर पर चुनावी निर्णय लेते हैं। वैचारिक स्तर पर अनुसूचित जाति के लोगों के रुझान की व्याख्या में ज्योतिराव फुले, साहू महाराज और बीआर अंबेडकर जैसे लोगों के विचारों को आधार बनाया गया। इसी वैचारिक जमीन पर यह बात टिकी है कि सामाजिक के संदर्भ में मतदाता मजबूती से अपनी वैचारिक जमीन पर खड़े होकर चुनाव संबंधित निर्णय लेते हैं। ऐसे मतदाताओं के लिए चुनावी लोकतंत्र सामाजिक बराबरी का एक माध्यम है। इस तरह के सामाजिक के लिए दिमाग और आवाजाही की स्वायत्ता जरूरी है।
इन लेखकों की सामाजिक की अवधारणा को आगे बढ़ाने की जरूरत है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के साथ अब अल्पसंख्यक वर्ग के चुनावी निर्णय में जिस तरह का बदलाव दिख रहा है, उसमें अहम बात यह है कि ये मतदाता मतदान करते वक्त अपनी नैतिक क्षमताओं और आत्मसम्मान को अधिक तरजीह दे रहे हैं।