एलआईसी में हिस्सेदारी बेचना
एलआईसी की हिस्सेदारी बेचने की प्रक्रिया क्या राजनीतिक रुख से कुछ अधिक है?
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2020 के बजट में केंद्र सरकार ने यह घोषणा की कि वह भारतीय जीवन बीमा निगम की दस फीसदी हिस्सेदारी जनता को आईपीओ के जरिए बेचेगी। केंद्र सरकार ने वित्त वर्ष 2021 के लिए 2.1 अरब रुपये विनिवेश के जरिए जुटाने का लक्ष्य रखा है। माना जा रहा है कि सिर्फ एलआईसी के आईपीओ से इसका एक तिहाई जुटाया जाएगा। एलआईसी के मामले में कहा जा सकता है कि इसके साथ ऐसा करने का विचार पहले की सरकारों को भी आया था लेकिन ऐसा हो नहीं पाया था। एलआईसी पूरी तरह से सरकार के हाथ में है। इस नाते यह एक ऐसी दुधारू गाय है जिसका इस्तेमाल सरकार संकट की घड़ी में किसी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी को बेलआउट करने में कर सकती है।
2018-19 में एलआईसी ने संकट का सामना कर रहे आईडीबीआई बैंक की 51 फीसदी हिस्सेदारी खरीदी। एलआईसी ने यह निर्णय अपनी माली हालत की अनदेखी करते हुए लिया। लेकिन इस घटना ने बताया कि सरकारें किस ढंग से एलआईसी का इस्तेमाल करती हैं। 10 फीसदी के विनिवेश के बावजूद सरकार के पास एलआईसी की 90 फीसदी हिस्सेदारी रहेगी। आर्थिक प्रबंधन के लिए सरकारों द्वारा राष्ट्रीय संपत्तियों को बेचा जाना नया नहीं है। लेकिन मौजूदा सरकार न सिर्फ खराब होते आर्थिक संकेतकों को दबाने की कोशिश कर रही है बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों से पैसा निकालने और निजीकरण का काम भी कर रही है। क्या सरकार ऐसा अपने आर्थिक कुप्रबंधन पर पर्दा डालने के लिए कर रही है?
एलआईसी का आईपीओ लाने के लिए एलआईसी अधिनियम, 1956 में संशोधन करना पड़ेगा। लेकिन इससे कई चिंताएं जुड़ी हुई हैं। पहली चिंता तो यह है कि कुछ विपक्षी पार्टियां एलआईसी को आम लोगों का ‘पैसा सुरक्षित रखने वाली’ कंपनी मानते हैं। ऐसे में यह देखना होगा कि संशोधन की कोशिशों पर इनका क्या रुख रहता है। सरकार के लिए संशोधन विधेयक को पारित कराना मुश्किल नहीं होगा। दूसरी चिंता यह है कि अगर संशोधन हो जाता है और हिस्सेदारी बेची जाती है तो इससे एलआईसी और बीमाधारकों पर क्या असर पड़ेगा?
एलआईसी के पास 32 लाख करोड़ रुपये की कुल संपत्ति है। इस आईपीओ के जरिए एलआईसी के पूंजी आधार को मौजूदा 100 करोड़ से बढ़ाने की योजना है। सांस्थानिक तौर पर एलआईसी के लिए यह अहम होगा। लेकिन आईपीओ के लिए यह जरूरी होता है कि संबंधित कंपनी के निवेश और वित्तीय स्थिति से संबंधित जानकारियां सार्वजनिक हों। आईपीओ के लिए कानून में संशोधन करके सरप्लस के वितरण और इसमें जमा पैसे की सरकारी गारंटी के प्रावधान में भी बदलाव करना होगा। जबकि इन्हीं वजहों से लोगों में यह विश्वास आता है कि वे अपना पैसा एलआईसी के पास रख सकें।
सात दशक के अब तक के सफर में एलआईसी ने सहभागी कारोबार का माॅडल अपनाया है। बीमा अधिनियम में 2011 में संशोधन करके यह प्रावधान किया गया था कि मुनाफे का दस फीसदी तक शेयरधारकों को दिया जा सकता है। 2013 से सरकार लगातार 10 फीसदी की मांग भी कर रही है। लेकिन एलआईसी ने पांच फीसदी ही सरकार को दिया है और 95 फीसदी मुनाफा बीमाधारकों को बोनस के तौर पर दे रही है। ऐसे में अगर आईपीओ आता है और स्वामित्व का ढांचा बदलता है तो बीमाधारकों का बोनस घटने और शेयरधारकों का लाभांश बढ़ने की आशंका है। वहीं अगर ‘सरकारी गारंटी’ के प्रावधान से छेडछाड़ की कोशिश भी होती है तो इससे बीमाधारकों का विश्वास डगमग होगा।
पिछले पांच साल में एलआईसी को हुई कुल आमदनी में प्रीमियम के जरिए 60 फीसदी आमदनी हुई है। आमदनी के तकरीबन 90 फीसदी का इस्तेमाल बीमा दावों को निपटाने के लिए हुआ है। जाहिर है कि मुनाफा काफी कम बचता है। ऐसे में कारोबार प्रबंधन में गड़बड़ी से बीमाधारक मुश्किल में पड़ेंगे। पिछले पांच साल में एलआईसी ने वैसे शेयरों में निवेश किया है जिनका प्रदर्शन ठीक नहीं है। इससे पता चलता है कि एलआईसी की निवेश रणनीति पर किस तरह से राजनीतिक दबाव काम कर रहा है। इस वजह से एलआईसी के आईपीओ की योजना पर सजग रहने की जरूरत है।