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प्रदर्शन का नामोल्लेख

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The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

व्यवस्था के खिलाफ अगर कोई भी वैचारिक, राजनीतिक, साहित्यिक और सामाजिक विरोध हो तो इसके कई मतलब निकाले जाते हैं और इस प्रक्रिया में नामोल्लेख भी होता है। नागरिकता संशोधन कानून को लेकर दिल्ली के शाहीन बाग में चल रहे प्रदर्शन के मामले में भी यही हो रहा है। यहां प्रदर्शनकारियों ने खुद को समावेशी नागरिकता के दायरे में रखा है जो संवैधानिक सिद्धांतों पर आधारित है। शाहीन बाग के प्रदर्शन एक प्रतीक बन गया है जिसके जरिए दूसरे जगह चल रहे प्रदर्शनों के बारे में भी बताया जा रहा है। कोलकाता, मुंबई और लखनउ में जहां प्रदर्शन हो रहे हैं, उन्हें वहां का शाहीन बाग कहा जा रहा है। शाहीन बाग की इस तरह की ख्याति इसलिए हो गई है कि यहां प्रदर्शनकारियों ने खुद को ‘भारतीय संविधानवादी’ के तौर पर पेश किया है।

हालांकि, इस तरह के नामोल्लेख के आंतरिक और बाहरी दिक्कतें भी हैं। इसमें प्रदर्शनों की स्वतंत्र नैतिक पहचान नहीं बनती। उदाहरण के तौर पर ये कहा जा सकता है कि ऐसे प्रदर्शनों की नकारात्मक छवि वे लोग बनाते हैं जो पूरे देश को एकरूप बनाना चाहते हैं। इन प्रदर्शनों की साख खराब करने के लिए ये लोग हर तिकड़म अपनाते हैं। ऐसे लोग उदार आवाजों को भी राष्ट्र-विरोधी कह डालते हैं। अफवाह फैलाने के लिए ये लोग मीडिया के एक वर्ग की मदद लेकर ‘छोटी टोपी’ और ‘झोलावालों’ की तस्वीरें प्रकाशित और प्रसारित कराते हैं। इस तरह की पहचान स्थापित करके प्रदर्शनकारियों को बदनाम करने की कोशिश की जा रही है। लेकिन यहां महत्वपूर्ण यह है कि प्रदर्शनकारियों के बाहरी आवरण को न देखते हुए यह देखा जाना चाहिए कि उनमें आतंरिक तौर पर क्या मूल्य हैं। लेकिन इन प्रदर्शनों के विरोधी ऐसा नहीं कर रहे हैं।  

जो लोग इन प्रदर्शनों को व्यापक तौर पर देख रहे हैं, वे इन प्रदर्शनों के मतलब भी निकाल रहे हैं। उदाहरण के लिए कुछ लोग इन प्रदर्शनों को मुस्लिम महिलाओं से जोड़ रहे हैं।

इन कोशिशों का परिणाम यह होगा कि इन प्रदर्शनों को एक संकुचित दायरे में देखा जाएगा। इसमें राजनीतिक तौर पर सही होने का भी दबाव होगा। एक खास ढंग से इन्हीं चिन्हित किया जाएगा। इससे बचने के लिए राजनीतिक तौर पर सही होने का दबाव होगा। ऐसी परिस्थिति में एक खास तरह की पहचान रखने वालों के पास यह विशेषाधिकार होगा कि वे प्रदर्शन पर खास ढंग से नामोल्लेख कर सकें।

इस संदर्भ में क्या किसी को इन प्रदर्शनों पर अपने ढंग से राय बनानी चाहिए? क्या व्यापक मायनों को सीमित करके देखे जाने से संविधानवाद का लोकतांत्रिकरण सीमित नहीं होता? इस तरह के मसलों को  दो दशक से भी अधिक पहले ईपीडब्ल्यू में एक लेख के जरिए रूस्तम भरुचाा ने उठाया था। 24 जनवरी, 1998 के अंक में उनका यह लेख ‘दि शिफ्टिंग साइट्स आॅफ सेकुलरिज्मः कल्चरल पाॅलिटिक्स ऐंड एक्टिवजम इन इंडिया टुडे’ के शीर्षक के साथ प्रकाशित हुआ था। अपने पाठकों से आग्रह करेंगे कि उस लेख को फिर से पढ़ें ताकि इन प्रदर्शनों के मायने के संदर्भ में सही दृष्टि हासिल हो सके।

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