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प्रतिज्ञात्मक संवैधानिकता

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The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

हाल तक यह समझ बरकरार थी कि भारतीय संविधान एक महत्वपूर्ण नियामक दस्तावेज है जिसे 26 जनवरी, 1950 को महत्व हासिल हुआ। इस दिन विजय पथ पर जिस तरह से सैन्य शक्ति का प्रदर्शन हुआ उसमें नागरिकों में यह संदेश गया कि हम एक ऐसे मजबूत देश में हैं जो बाहरी खतरों का मुकाबला कर सकता है। हम लोगों में से कुछ के लिए संवैधानिक उपलब्धियां कम महत्व की थीं। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं हुआ कि हम संविधान से संबद्ध नहीं हैं। संविधान से हमारी नजदीकी का पता इसकी शिक्षाओं से मिलता है। यह स्कूल, काॅलेज और विश्वविद्यालयों में मिलता है। केंद्र और राज्य में जो लोग मंत्री बनते हैं, उन्हें भी संविधान की शपथ लेनी होती है। शपथ वहां लिए और दिए जाते हैं, जहां उनकी जरूरत होती है। संविधान के प्रति प्रतिबद्धता की शपथ का काम व्यक्तिगत और कानूनी स्तर पर होता है।

इस पृष्ठभूमि में हमें उन आयोजनों पर ध्यान देना चाहिए जहां सामूहिक तौर पर शपथ लिया जा रहा रहा है। कई जगहों पर विरोध-प्रदर्शनों में यह काम हो रहा है। संविधान के सार्वभौमिक सिद्धांतों के प्रति अपना विश्वास दिखाने के लिए जनता शपथ ले रही है। यह उन लोकतांत्रिक संस्थाओं को लक्षित करके किया जा रहा है जो अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियां का निर्वहन नहीं कर पा रहे हैं। संवैधानिक जिम्मेदारियों के निर्वहन में नाकामी से संबंधित सवाल जब सरकार के प्रवक्ताओं से पूछे जा रहे हैं तो वे जवाब नहीं दे रहे हैं। वे सिर्फ यह दावा कर रहे हैं कि सत्ताधारी सरकार संविधान का पालन करने के लिए प्रतिबद्ध है। वे यह भी कहते हैं कि उन लोगों ने संविधान के पालन की शपथ ली है।

शपथ ग्रहण में संवैधानिक कायदों और उनके हिसाब से काम करने का एक तरह की प्रतिज्ञा होती है। हालांकि, यह कार्य अब संस्थाओं के दायरे से बाहर निकलकर आम लोगों के बीच सड़कों पर पहुंच गया है। यह काम सामूहिक तौर पर हो रहा है। तीन वजहों से यह कार्य अलग है। पहली बात तो यह कि इसके जरिए यह संदेश जा रहा है कि संवैधानिक सिद्धांतों का पालन करने में सरकार की तार्किक क्षमताओं की एक सीमा है। इसलिए शपथ लेकर सरकार को यह याद दिलाने की कोशिश हो रही है। दूसरी बात यह कि विरोध-प्रदर्शन समावेशी नागरिकता के लिए हो रहे हैं। जिसमें कोई धार्मिक पूर्वाग्रह नहीं हो। इसमें आत्मसम्मान का भाव निहित है। तीसरी बात यह कि इसके जरिए इस बात की कोशिश नैतिक तौर पर हो रही है कि संवैधानिक समुदायों का निर्माण हो। इसलिए शपथ लेकर और संविधान के प्रति प्रतिबद्धता दिखाकर जनता में संवैधानिक और लोकतांत्रिक जागरूकता फैलाने का काम भी हो रहा है।

संवैधानिक समुदायों के उभार की संभावना की वजह से संविधान के समर्थकों के एकजुट होने की उम्मीद भी है। इसमें यह बात भी है कि संविधान की शपथ लेना और इसका पालन नहीं करने के बीच दोहरापन है। संविधान की शपथ लेकर लोकतंत्र के प्रति एक वादा किया जाता है और संवैधानिक समुदायों के निर्माण की कोशिश होती है। इसलिए हाल के दिनों में जो सामूहिक शपथ ग्रहण का काम हो रहा है, उसके जरिए संवैधानिक आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति हो रही है। इन नई पहलों के जरिए प्रतिज्ञात्मक संवैधानिकता की अभिव्यक्ति हो रही है। इसलिए सामूहिक तौर पर किए जा रहे ये कार्य औपचारिक कानूनी विमर्श से कहीं आगे के हैं।

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