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विरोध का सच

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The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

नागरिकता संशोधन कानून पर देश भर में जो विरोध-प्रदर्शन चल रहे हैं, उन्होंने जन विरोध को एक नया आयाम दिया है। ये प्रदर्शन दो मायने में जनविरोध को व्यापक अर्थ दे रहे हैं। पहली बात तो यह कि इन प्रदर्शनों के जरिए राष्ट्र के प्रति गांधीवादी विचारों पर लोगों का ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश हो रही है। यह विचार शांति और सामाजिक समरसता पर आधारित है। दूसरी बात यह कि इन प्रदर्शनों में भीमराव अंबेडकर को भी याद किया जा रहा है जिनकी संविधान के निर्माण में भूमिका हर कोई जानता है। संवैधानिक लोकतंत्र और लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद पर उनके अपने विचार थे।
 

संवैधानिक लोकतंत्र में यह सत्ताधारियों के लिए कानूनी तौर पर अनिवार्य हो जाता है कि वे लोगों के और अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करें। अंबेडकर के विचार लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद की परिकल्पना को दिखाते हैं। इस राष्ट्रवाद के मूल में सबके लिए समान सम्मान का लोकतांत्रिक मूल्य है। इसलिए अंबेडकर उस सार्वभौमिक सच की बात करते हैं जिसका कूल लोकतांत्रिक मूल्य के तौर पर स्वतंत्रता है। ये दोनों चिंतक सार्वभौमिक सच की बात करते हैं, इसलिए इनकी बातों को भी सार्वभौमिक माना जा सकता है।

जो विरोध हो रहे हैं, उनमें इन दोनों विचारकों के सिद्धांतों के पालन की बात कही जा रही है। विरोध करने वाले सिर्फ दिखावे के लिए इनके विचारों को उदघृत नहीं कर रहे हैं। वे बहुत स्थायी भाव से गांधी और अंबडेकर के विचारों की बात कर रहे हैं। वे जाति और लिंग से जुड़े मसलों को संविधान और लोकतंत्र से जोड़कर उठा रहे हैं। महिलाएं भी इस विरोध में आगे बढ़कर नेतृत्व कर रही हैं। गांधी और अंबेडकर के विचारों में भी इनकी समस्याओं को लेकर चिंता दिखती है। इसे दूसरे ढंग से देखें तो जाति और लिंग के आधार पर जो अत्याचार होते हैं, अगर उन्हें ठीक से उठाया गया तो इसका राजनीतिक विमर्श पर गहरा प्रभाव पड़ेगा।

इन विरोध-प्रदर्शनों के जरिए प्रदर्शनकारियों को यह अवसर मिला है कि वे संवैधानिक नैतिकता और लोकतंत्र से जुड़े सार्वभौमिक सवालों को उठा सकें। इसमें भी खास बात यह है कि गांधी और अंबेडकर के हवाले से इन सार्वभौमिक सच्चाइयों को उठाया जा रहा है। विरोध के जरिए इन सच्चाइयों की मांग की जा रही है न कि इन पर स्वामित्व दिखाया जा रहा है। स्वामित्व दिखाने का तात्पर्य यह होगा कि नागरिकता के सवाल पर जाति और लिंग के सवालों को प्राथमिकता देना। ये ऐसे सार्वभौमिक सच हैं जिनका पता लगाने के लिए नकाब पहनना जरूरी नहीं है। सच की अपनी ताकत होती है और इसे किसी के पीछे छिपने की जरूरत नहीं होती।

हालांकि, सफेद छूट को नकाब के पीछे छिपने की जरूरत होती है। गांधी और अंबेडकर के विचारों पर आधारित सच का एक व्यापक दायरा है। इससे निपटने के लिए इन विरोधों का विरोध करने वाले लोगों को ऐसी बातों का सहारा लेना पड़ रहा है जिससे आम लोगों के मन में ये भ्रम पैदा कर सकें। अपने ढंग से राष्ट्रवाद और आजादी की बात को ये लोगों के बीच उठा रहे हैं।

ऐसे विरोधी लोग किसी भी वैध लोकतांत्रिक असहमति को राष्ट्र-विरोधी करार दे रहे हैं। ऐसा करके ये लोकतंत्र और राष्ट्रवाद को आमने-सामने एक-दूसरे के विरोध में खड़ा कर दे रहे हैं। राष्ट्रवाद को जब गांधी और अंबेडकर की दृष्टि से देखें तो इसके कई आयाम उभरते हैं। समाजवादी राष्ट्रवाद, बहुजन राष्ट्रवाद और लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद इनमें शामिल हैं। हालिया प्रदर्शनों का विरोध करने वाले लोग नागरिकता को भी संकुचित दायरे में देख रहे हैं। इसे सिर्फ एक धर्म की दृष्टि से देखा जा रहा है। नागरिकता को लेकर संविधान में जो सार्वभौमिक बात की गई है, उसकी अनदेखी करते हुए इसे एक धर्म के दायरे में देखा जा रहा है। प्रदर्शन करने वालों के खिलाफ फर्जी खबरें चलाई जा रही हैं। ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ कहकर इनकी साख खराब करने की कोशिश की जा रही है। ऐसा करके राष्ट्रवाद को एक संकुचित दायरे में लोगों के मन में बैठान की कोशिश हो रही है। ऐसा करने से संविधान के मूल सिद्धांतों के तहत लोकतांत्रिक नागरिकता और राष्ट्रवाद जैसे सार्वभौमिक मूल्यों को धुंधला करने की कोशिश हो रही है।

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