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जब एफआरडीआई विधेयक की वापसी होगी

जब एफआरडीआई विधेयक को फिर से पेश किया जाएगा तो क्या इसमें वित्तीय अस्थिरता की समस्या के समाधान के उपाय होंगे?

 

The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

7 नवंबर, 2019 को जो वित्तीय स्थिरता और विकास परिषद यानी एफएसडीसी की जो बैठक हुई, उसके एजेंडे में मुख्य बात यह रही कि देश के वित्तीय क्षेत्र के समाधान के ढांचे को ठीक करना है। इसके बाद ये कयास लगाए जा रहे हैं कि क्या मौजूदा सरकार फाइनांशियल रिजाॅल्यूशंस ऐंड डिपोजिट इंश्योरेंस यानी एफआरडीआई विधेयक, 2017 को फिर से पेश करने वाली है। याद रहे कि इस विधेयक को पेश करने के साल भर के अंदर ही सरकार ने इसे वापस ले लिया था। क्योंकि इसमें जो ‘बेल इन’ प्रावधान था, उससे यह धारणा बनी कि बैंकों में अपनी रकम जमा करने वालों के पैसे का इस्तेमाल वित्तीय संस्थानों को बचाने के लिए किया जाएगा। पिछले दो दशक में घरेलू निवेश में बैंकों की हिस्सेदारी तेजी से बढ़ी है। इस वजह से बैंकों में जमा होने वाले पैसे की सुरक्षा अहम है।

मीडिया में ऐसी खबरें प्रकाशित हुई हैं जिनसे पता चलता है कि इस विधेयक को संशोधनों के साथ लाने की योजना पर काम चल रहा है। अब इसे फाइनैंशियल सेक्टर डेवलपमेंट ऐंड रेगुलेशन रिजाॅल्यूशन विधेयक, 2019 नाम दिया गया है। इसमें तीन बातें आ रही हैं। पहली बात यह कि ग्राहकों के लिए जमा पर मिलने वाली की सीमा बढ़ाई जाए। दूसरी बात यह कि बेल इन के प्रावधान के विवादास्पद बिंदुओं को हटाया जाए। तीसरी बात यह कि क्या इन रिजाॅल्यूशन प्रावधानों को सरकारी बैंकों पर भी लागू करना है? एक ऐसे वक्त में जब सरकारी बैंक बुरे कर्जों की वजह से दबाव में हैं तो जमा पर बीमा की सीमा में बढ़ोतरी स्वागतयोग्य कदम होगा। इससे जमाकर्ताओं का भरोसा बढ़ोगा। इससे भारत के बैंकिंग क्षेत्र में व्यवस्थागत स्थिरता आएगी।

वित्तीय स्थिरता के लिहाज से बैंकों के ‘स्वामित्व’ की भूमिका को लेकर देश में काफी बातें हुई हैं। भारतीय रिजर्व बैंक का मानना है कि वित्तीय स्थिरता के लिए बैंकों का स्वामित्व सरकार के हाथ में होना ठीक है। लेकिन रिजाॅल्यूशन के बारे में नियम बनाने के लिए बनी समिति का कहना है कि इससे इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धात्मक निरपेक्षता प्रभावित होती है। समिति का मानना है कि बैंकिंग क्षेत्र में सबके लिए बराबरी के अवसर होने चाहिए।

यही वजह थी कि एफआरडीआई विधेयक, 2017 के जरिए देश के 20 कानूनों में संशोधन किया जाना था। इसमें रिजर्व बैंक से लेकर एनबीएफसी, सेबी और कई अन्य नियामकों से संबंधित कानून शामिल हैं। इसके पीछे सोच यह थी कि किसी भी नाकाम होती वित्तीय संस्था के समस्याओं का समाधान किया जा सके। एक रिजाॅल्यूशन काॅरपोरेशन बनाकर उसके अंदर ही सारे वित्तीय संस्थानों को लाने की योजना थी। अब जब नए विधेयक की बात चल रही है तो यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या ऐसी कोई एक संस्था देश की वित्तीय स्थिरता के लिए पर्याप्त होगी।

इस संदर्भ में कई बुनियादी बातें उभर रही हैं। पहली बात यह कि जानबूझकर स्वामित्व के मामले में ‘निरपेक्षता’ थोपना क्या व्यावहारिक तौर पर सही होगा। एक बात यह भी है कि एक ही रिजाॅल्यूशन संस्था के तहत सभी वित्तीय संस्थाओं को लाना क्या सही होगा? क्योंकि अलग-अलग संस्थानों की अलग-अलग प्राथमिकताएं होती हैं। निजी संस्थाएं मुनाफे के लक्ष्य के साथ चलती हैं जबकि सरकारी संस्थाओं की कई सामाजिक बाध्यताएं होती हैं। सरकारी बैंकों का स्वामित्व सरकार के हाथ में होने की वजह से निवेशकों में भरोसा जगता है और वे अपना पैसा इन बैंकों में रखते हैं। लेकिन अगर सरकारी बैंकों से संप्रभु गारंटी को वापस लिया जाएगा और रिजाॅल्यूशन का अधिकार भी वापस लिया जाएगा तो इससे देश की वित्तीय व्यवस्था अस्थिर हो सकती है।

दूसरी बात बेल-इन प्रावधान से संबंधित विवाद है। एफआरडीआई विधेयक, 2017 के मुताबिक जमा बीमा के दायरे में जो भी बचत होगी, वह इसके दायरे में आएगी। अभी जमा बीमा का दायरा एक लाख रुपये है। इसका मतलब यह हुआ कि इससे अधिक का जमा बेल-इल प्रावधान के दायरे में आ जाएगा। छोटी अवधि के कर्ज और गैरवर्गीकृत ग्राहकों की संपत्तियां भी अभी इस दायरे में आती हैं। विडंबना ये है कि ये प्रावधान ऐसे समय में आ रहे हैं जब 2017 की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट में बताया गया है कि जमा में 3.3 फीसदी गिरावट आई है।

इससे कई सवाल खड़े होते हैं। जब वित्तीय स्थिरता गड़बड़ हो रही हो तो सरकार इस तरह के सुधार की बात क्यों कर रही है जिससे जमाकर्ताओं का भरोसा कम होगा? यह भरोसा ही वित्तीय स्थिरता के मूल में है। ऐसे में अगर फिर इस विधेयक को लाया जाता है तो क्या हमें कोई उम्मीद करनी चाहिए?

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