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एक विचार के तौर पर विश्वविद्यालय

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The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

एक संस्थान के तौर पर विश्वविद्यालय सिर्फ अपने बूते नहीं चलते हैं। अगर वे खुद को एक विचार के तौर पर बहुतों के लिए आकर्षक बनाते हैं तो वे विभिन्न क्षेत्रों और देशों में बढ़ते जाते हैं। इसलिए विश्वविद्यालय सिर्फ भौतिक ढांचा के तौर पर सीमित नहीं हैं। बल्कि वे विचारों को सांस्थानिक बनाने वाली संस्थाएं हैं। विश्वविद्यालय मुख्यतः दो कार्य करते हैं। एक तो यह कि मूल आधारित विचारों को सांस्थानिक बनाते हैं और दूसरा यह कि इन विचारों की मेजबानी करते हैं। आदर्श तौर पर बात करें तो विश्वविद्यालय सृजनात्मक सोच को बढ़ावा देने का काम करते हैं। ये विभिन्न विचारों को पनपने और फलने-फूलने का अवसर देते हैं।

एक विचार के तौर पर विश्वविद्यालय छात्रों को इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि वे अपनी सोचने की क्षमता का सही ढंग से इस्तेमाल करें। यह कहना गलत नहीं होगा कि जिज्ञासु दिमाग संवाद और विमर्श में यकीन करता है। विरोध करने वाले स्वरों में जीवंतता पैदा करता है। इसलिए विश्वविद्यालय के प्रशासन को भी इन आयामों को लेकर संवेदनशील होना चाहिए क्योंकि ये ही विश्वविद्यालय की परिकल्पना के मूल में हैं। एक संस्थान के तौर पर विश्वविद्यालय सामाजिक और बौद्धिक प्रतिबद्धताओं को निभाने का काम करते हैं। उनका काम सिर्फ संवाद और असहमति के लिए जगह मुहैया कराना नहीं है बल्कि असहमति को सार्वभौमिक बनाने का भी है। इस तरह के स्वर सामाजिक बराबरी के लिए जरूरी माने गए हैं। इन प्रतिबद्धताओं से छेड़छाड़ की कोई भी कोशिश विरोध को आमंत्रित करेगी। सरकारी विश्वविद्यालयों का यह दायित्व भी है कि वे पिछड़े वर्गों के छात्रों की जरूरतों का ध्यान रखें। इन विश्वविद्यालयों में ही ये छात्र अवसरों को थाती में बदल पाते हैं। यह दुनिया के अधिकांश देशों के लिए सही है। सरकार उनकी आकांक्षाओं की अनदेखी नहीं कर सकती। छात्रों से सरकार को बड़े ध्यान से पेश आना चाहिए। सरकार को इन शैक्षणिक संस्थानों का सहयोग करना चाहिए लेकिन कोई ऐसा हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए जिससे ये अपने दायित्वों से दूर हो जाएं। नैतिक तौर पर संवेदनशील सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन को छात्रों को दुश्मन के तौर पर नहीं देखना चाहिए। जहां बहुत ज्यादा हस्तक्षेप हो और जानबूझकर विरोध किया जा रहा हो, वहां उस विश्विद्यालय के लिए अपने आदर्शों पर टिके रहना मुश्किल होगा। सिविल सोसाइटी के सदस्यों से यह उम्मीद की जाती है कि वे विश्वविद्यालय की अहमियत को समझेंगे।

यह नहीं भूलना चाहिए कि सरकार के पैसे पर चलने वाले सरकारी विश्वविद्यालयों का यह दायित्व भी है कि वे विद्वता के दायरे को बढ़ाएं। एक विचार के तौर पर विश्वविद्यालय की परिकल्पना के साथ ही किसी देश की बौद्धिक क्षमता का अंदाजा लगाया जा सकता है। इसलिए गलत दुष्प्रचार के जरिए विश्वविद्यालयों की छवि खराब करना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा। हमें यह समझने की जरूरत है कि किसी देश की नैतिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक क्षमता विचारपूर्ण मानस के विस्तार पर निर्भर करती है। इस लक्ष्य को हासिल करने के प्राथमिक माध्यम विश्वविद्यालय हैं। देश के और बाहर के प्रदर्शनकारियों ने इसके महत्व को समझ लिया है और इसलिए विश्वविद्यालयों को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाने का अभियान चल रहा है ताकि ये सार्वजनिक संस्थाएं बर्बाद होने से बच सकें।

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