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जोखिमपूर्ण राजनीतिक प्रस्ताव के रूप में भविष्यवाणी

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The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

मैं इस स्पष्टीकरण के साथ अपनी बात शुरू करना चाहूंगा कि यहां मेरी भविष्यवाणी चुनावी अनुमानों से संबंधित नहीं हैं जिसमें विशेषज्ञ चुनाव परिणाम को लेकर भविष्यवाणी करते हैं। न ही मेरी बात एग्जिट पोल के आधार पर की जाने वाली चुनावी भविष्यवाणी से संबंधित है। ये भविष्यवाणियां चुनावों के पहले जनता का मूड देखकर की जाती हैं। राजनीति के एक परिदृश्य के लिहाज से ये अनुमान ठीक हैं लेकिन दूसरे परिदृश्य के लिहाज से ठीक नहीं हैं। हमें राजनीति को समझने के लिए इस तरह की 'भविष्यवाणी' को अलग ढंग से देखना होगा। राजनीतिक दलों और राजनीतिक विशेषज्ञों की भविष्यवाणियों में फर्क होता है। पार्टियां चाहती हैं कि मतदाता इस ढंग से मतदान करें जिनमें उस पार्टी का लाभ हो।
इसमें भी संभावित मतदाताओं को ध्यान में रखकर भी कोशिशें की जाती हैं जो भविष्य में संबंधित पार्टी को वोट दे सकें। हालांकि, ऐसे मतदाताओं के निर्माण की प्रक्रिया चुनावी ध्रुवीकरण की प्रक्रिया से अलग होती है।  इस तरह के ध्रुवीकरण में मतदाता अपनी राजनीतिक स्वायत्तता का इस्तेमाल करते हैं और वे संबंधित राजनीतिक दलों द्वारा की गई कोशिशों को साझा करते हैं। इस कोशिश में पार्टियां मतदाताओं के व्यवहार का अनुमान लगाने की कोशिश करती हैं। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में इसके लिए भावनात्मक मुद्दे उठाए गए, फर्जी वादे किए गए, फर्जी खबरें चलाई गईं और सफेद झूठ बोला गया। आखिर वे कौन सी बौद्धिक और सांस्कृतिक स्थितियां हैं जिनकी वजह से कोई व्यक्ति इस तरह के झूठ को स्वीकार करता है?
किसे वोट देना है, यह निर्णय लेने से पहले मतदाता किसी से सवाल नहीं पूछता। मतदाताओं को खुद ही बौद्धिक तौर पर समृद्ध होना चाहिए। राष्ट्रवाद जैसे भावनात्मक मुद्दे मतदाताओं को संतुष्टि प्रदान करते हैं। लेकिन अगर मतदाता निराशा के दौर में झूठ को भी स्वीकार करने लगते हैं। इन्हीं परिस्थितियों की वजह से राजनीतिक भविष्यवाणी की जाती है जिसका अनुभव 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने किया। 2014 में उसने कई वादे किए और 2019 में भावनाओं को उभारा ताकि मतदाता उसके पक्ष में आ सकें। इस तरह की राजनीति में संवाद और विचार—विमर्श की जगह नहीं बचती।
इस तरह की पार्टी यह प्रभाव पैदा करने की कोशिश करती है कि उसकी सरकार जिन नीतियों को ला रही है, उसे लोग पसंद कर रहे हैं और उसका कामकाज जनता के हित में है। इस तरह की परिस्थितियों में पारदर्शिता के लिए जगह नहीं होती। इस तरह की सरकार और उसके समर्थक पारदर्शी राजनीति के निर्माण में कोई योगदान भी नहीं करते। इस तरह की प्रक्रिया लोकतंत्र को कमजोर बनाने का काम करती है। ऐसी स्थिति में मतदाता राजनीतिक दलों के उपकरण मात्र बनकर रह जाते हैं। ऐसी पार्टियां लंबे समय तक राज करना चाहती हैं। झूठ के प्रसार के जरिए चुनावी राजनीति में मतदाताओं के स्वतंत्र निर्णय प्रक्रिया को बाधित कर दिया जाता है। जनता का आत्मसम्मान खतरे में है। पार्टियां मतदाताओं को कोई खास अहमियत नहीं दे रही हैं। ये मतदाताओं को सिर्फ सत्ता पाने का उपकरण मान रहे हैं।
हालांकि, पांच राज्यों के चुनावी नतीजों से यह पता चलता है कि कोई भी पार्टी दूसरी पार्टी पर बहुत अधिक प्रभाव डालने में लंबे समय तक कामयाब नहीं रह सकती। राजनीतिक नियंत्रण को अपने हाथ में सीमित करने की कोशिश जोखिम वाली है। जो लोग एक खास तरह के मतदाताओं का निर्माण करके भविष्यवाणी को सही साबित करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं कि ऐसा करके सफलता की गारंटी नहीं मिलती और इसके जरिए लंबे समय तक या सदा के लिए शासन सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है।

Updated On : 12th Feb, 2020
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