कोष्ठक के रूप में हिंसा
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नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में जो प्रदर्शन हुए उन पर सरकार की प्रतिक्रिया ने हिंसा के जटिल चरित्र को उभारा है। विरोध-प्रदर्शनों के मौजूदा संदर्भ में कुछ ऐसे बिंदु हैं जिन पर विचार करने की जरूरत है। सरकार शांति की सामाजिक कीमत के नाम पर हिंसा की आलोचना करती हुई दिखती है। इसका मतलब यह हुआ कि हिंसा का कोई औचित्य ही नहीं है। अहिंसक प्रदर्शनों को लोग ऐसे में उचित मानते हैं। लेकिन हाल में छात्रों का जो प्रदर्शन चल रहा है, उनके संदर्भ में हिंसा को व्यापक ढंग से देखे जाने की जरूरत है। क्योंकि छात्रों के ये प्रदर्शन अहिंसक रहे हैं।
ये प्रदर्शन कुछ बातों पर आधारित हैं। प्रदर्शनकारियों के लिए सच्चाई और वादों दोनों का मतलब है। इससे असुरक्षा और अस्थिरता जैसी बातें निकलती हैं। जबकि सच्चाई यह है कि इन छात्रों को पुलिस की बर्बरता का शिकार होना पड़ रहा है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि सरकार का वादा क्या है? बहुलता, स्थिरता और जनता में आत्मविश्वास? इस संदर्भ में इस बात का ध्यान रखना भी जरूरी है कि संसद ने जिस कानून को पारित किया है, उसकी संवैधानिक वैधता क्या है। यहां विरोध-प्रदर्शन इस कानून से बहुलता और धर्मनिरपेक्षता के लिए पैदा हो रहे खतरों के प्रति लोगों को आगाह करने के लिए है।
मौजूदा संदर्भ में जहां एक तरफ हिंसा को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में देखा जा रहा है तो दूसरी तरफ इसे कोष्ठक के रूप में भी देखा जा रहा है। हिंसा को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में देखते वक्त इसे व्यापक संदर्भों में देखा जाना जरूरी है। इसके तहत भीड़ द्वारा की जाने वाली हत्या, दलितों के खिलाफ होने वाले सामाजिक बहिष्कार, महिलाओं के खिलाफ होने वाली यौन उत्पीड़न की घटनाओं, किसानों की खुदकुशी, आदिवासियों का विस्थापन और गांवों में रह रहे लोगों के खराब जीवन स्तर को भी शामिल किया जाना चाहिए। जो लोग विरोध कर रहे हैं, वे इन सभी तरह की हिंसा से मुक्ति चाहते हैं।
हाल के सालों में सामाजिक संबंधों में हिंसा को शामिल किए जाने की कोशिशें तेज हुई हैं। छात्रों के प्रदर्शन पर जिस तरह से हिंसक प्रतिक्रिया दी जा रही है, उससे इस बात की पुष्टि होती है। इसलिए हिंसा को व्यापक संदर्भों में देखे बगैर इसे सिर्फ एक आयाम से स्वीकार करना ठीक नहीं है। कई रूपों में जो हिंसा विद्यमान है, उस वजह से समाज में असुरक्षा, बेरोजगारी, गैरबराबरी और अन्याय जैसी समस्याएं गहराती जा रही हैं।
दरअसल, दक्षिणपंथी राजनीति का समर्थन करने वाली सामाजिक ताकतें न सिर्फ विरोध-प्रदर्शनों में हिंसा को शामिल करा रही हैं बल्कि कई ढंग से इसका प्रचार-प्रसार भी कर रही हैं। इसके लिए फर्जी खबरों और सोशल मीडिया का भी सहारा लिया जा रहा है।
दक्षिणपंथी पार्टियां अपने समर्थकों की संख्या में विस्तार के लिए फर्जी खबरों का एक दुष्चक्र तैयार करती हैं। इसमें जो लोग फंस जाते हैं, वे फर्जी खबरों का प्रसार अपना दायित्व मानकर करते हैं। फर्जी खबरों का यह दुष्चक्र इसलिए और जटिल होते जाता है क्योंकि बहुत सारे लोग सही चीजों को सामने लाने को अपनी नैतिक जिम्मेदारी नहीं मानते। बाहर से हिंसा को प्रत्यारोपित करने का क्या परिणाम होता है? इससे सामाजिक वैमनस्य बढ़ता है। लोगों के बीच के सामाजिक संबंधों में एक-दूसरे के प्रति संदेह, असुरक्षा और अन्य नकारात्मक भाव गहराते जाते हैं। अहम सवाल यह है कि फर्जी खबरों के इस दुष्चक्र से लोगों को कैसे निकाला जाए? यह तब हो सकता है जब लोगों में सही और गलत का फर्क करने की नैतिक क्षमता विकसित हो और वे समाज में अमन और शांति जैसी चीजों का महत्व समझने लगें।