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निराशावादी राजनीति का उभार

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यह चिंता की बात है कि भारतीय राजनीति में निराशावाद का उभार हो रहा है। ये प्रक्रियागत के साथ तत्वों के स्तर पर भी दिख रहा है। शपथ दिलाने के लिए अजीब से समय का चयन प्रक्रियागत खामियों को दिखाता है। वहीं तत्वों के स्तर पर विधायकों के दल-बदल को देखा जा सकता है। महाराष्ट्र में हाल में चले राजनीतिक घटनाक्रम में ये बातें प्रमुखता से दिखीं। ये प्रवृत्तियां भारत के संवैधानिक कायदों पर चोट कर रही हैं। विधायक व्यक्तिगत तौर पर संविधान की बंदिशों को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। हाल ही में महाराष्ट्र में सरकार बनाने के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने जो आदेश दिए, वह प्रासंगिक है।

यह बात सही है कि जब चुनाव परिणाम स्पष्ट नहीं आते तो इस तरह की चीजों के लिए संभावनाएं पैदा होती हैं। लेकिन यह भी सच है कि इन प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने का काम नेता और पार्टियां सत्ता में बने रहने के लिए करते हैं।

इस संदर्भ में उन तत्वगत बातों की भी चर्चा जरूरी है जिस वजह से निराशावादी राजनीति का उभार हो रहा है। इस तरह की राजनीति की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि निजी हितों को साधने की इच्छा कितनी बड़ी है। राजनीतिक जीवन में इस तरह की मजबूत इच्छा व्यक्तिगत स्तर पर और सामूहिक स्तर पर भी प्रबल दिखती है। व्यक्तिगत हित सार्वजनिक हितों पर भारी पड़ जाते हैं।

निराशावादी राजनीति में पारदर्शी और संवाद आधारित लोकतंत्र के प्रति अनादर का भाव स्पष्ट तौर पर दिखता है। ऐसा इसलिए भी होता है कि नेताओं में व्यक्तिगत स्पर पर भी सार्थक संवाद की क्षमता नहीं होती। अगर यह क्षमता किसी में होती है तो वह भटकावों का सामना कर पाता है। ऐसी क्षमताओं वाले नेता फिसलने से बच जाते हैं।  कोई भी लोकतंत्र फिसलन की जमीन पर नहीं टिक सकता। लोकतांत्रिक सरकार इसलिए जरूरी होती है क्योंकि इससे सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक कार्यों की परंपरा स्थापित होती है। ये परंपराएं संविधान के अनुकूल होती हैं। विधायकों और राज्यपालों से उम्मीद की जाती है कि वे इन संवैधानिक कायदों का पालन करें।

अभी के माहौल में भारतीय राजनीति आशावाद से निराशावाद की ओर बढ़ती हुई दिख रही है। निराशावादी प्रवृत्तियां लोकतंत्र के अहम तत्वों को नष्ट करते हुई दिख रही हैं। स्वस्थ्य लोकतंत्र में पारदर्शिता और संवाद की संभावनाओं को विस्तार मिलता है। लेकिन अभी के माहौल में इनके लिए स्थान संकुचित होता जा रहा है। ऐसे में राजनीतिक पार्टियों से उम्मीद की जाती है कि वे स्वस्थ्य लोकतांत्रिक परंपराओं को बनाए रखें। लेकिन राजनीतिक पार्टियों की अभी ये स्थिति है कि ये खुद इन प्रवृत्तियों को बढ़ावा देती हुई दिख रही हैं। जनता यह उम्मीद करती है कि नेता और पार्टियां राजनीति मामलों में पारदर्शी और सम्मानजनक रहें। लोग यह मानते हैं कि ये न सिर्फ उनके लिए जरूरी है बल्कि लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए भी जरूरी है।

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