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अयोध्याः स्थान से जगह तक

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The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय से अयोध्या मामले में आए फैसले के बारे में काफी कुछ कहा गया। यह फैसला उस विवाद से संबंधित है जिसमें कंक्रीट के एक ढांचे को लेकर विभिन्न पक्षों में में विवाद था। इस तरह से देखा जाए तो विवादास्पद स्थान को लेकर यह विवाद का अंत है। अदालत ने इस स्थान को एक विशेष धर्म को मानने वालों को देने का फैसला किया। दूसरे धर्म से संबंधित लोगों को अदालत ने एक वैकल्पिक जगह देने का निर्णय भी लिया। यह दावा किया जा रहा है कि इस फैसले के बाद इस मसले पर विवाद खत्म हो जाएगा। जिस स्थान को लेकर विवाद होता है, वहां के साक्ष्य भी अंतिम निर्णय पर पहुंचने में मदद करते हैं। हालांकि, इस पूरी प्रक्रिया में न्याय को लेकर हर पक्ष पूरी तरह से संतुष्ट नहीं है। सच्चाई तो यह है कि न्यायपालिका ने इस मामले में आगे भी कानूनी कदम उठाने की थोड़ी जगह छोड़ रखी है।

किसी स्थान का विस्तार सिर्फ भौतिक ढंग से नहीं होता। बल्कि कल्पनाओं की जगहों के साथ इसका विस्तार होता है। जनता की परिकल्पना में वह मानसिक और सांस्कृतिक तौर पर जगह बनाते जाता है। इस प्रक्रिया में नफरत और बदले जैसे भावनात्मक सोच भी विकसित होती जाती है। इस तरह से देखें तो वह स्थान एक डायनामाइट में परिवर्तित होता जाता है जिसका विस्फोट कभी भी हो सकता है। कुछ खास सांस्कृतिक परिदृश्य में कुछ लोगों को उन शब्दों के साथ पुकारा जाता है जो सार्वजनिक तौर पर स्वीकार्य नहीं हैं। इससे इन बातों को सुनने वालों में सांस्कृतिक दमन की भावना घर करती चली जाती है। बहुत मुखर होकर इस तरह की बातें करने से दूसरे की अभिव्यक्ति खामोश होती चली जाती है। इन्हीं वजहों से फिर भावनाओं का विस्फोट होता है। ऐसे में यह सवाल उठाना लाजिमी हो जाता है कि क्या अदालती व्यवस्था और इसके फैसले ने उन लोगों की भावनात्मक स्थान को फिर से उन्हें लौटाने की व्यवस्था की जिन्हें इसकी तुरंत जरूरत है?

आज सामाजिक-सांस्कृतिक और यहां तक की मानसिक जगह भी सिमटती जा रही है। इससे खास समुदाय के लोग खास स्थानों में ही सिमटते जा रहे हैं। इन्हें संप्रदाय और समुदाय के दायरे में देखा जाता है। ऐसे स्थान प्रभुत्व रखने वाले समुदाय के लिए ‘शरणार्थी शिविर’ जैसे हो जाते हैं क्योंकि उन्हें दूसरों को मातहत बनाकर अपना प्रभुत्व स्थापित करना होता है। ऐसी जगहें आम तौर पर ठहर जाती हैं। ऐसे में यहां राजनीतिक गोलबंदी मुश्किल हो जाती है। खास तौर पर उस राजनीतिक धारा के पक्ष में यह गोलबंदी नहीं होती जिसके जरिए इन जगहों को संदेह की नजर से देखे जाने वाले सोच के अंत की बात होती हो।

ऐसे में यह सवाल उठाया जाना चाहिए कि वे कौन सी स्थितियां हैं जो किसी स्थान को जड़, शिथिल और अलग-थलग करने का काम करते हैं? या फिर वे कौन सी स्थितियां हैं जो किसी जगह को गतिमान बनाए रखती हैं और यहां रहने वाले लोगों के प्रति बराबरी का माहौल कायम रखती हैं? ऐसी स्थितियों में स्थानीय विषय सार्वभौमिक विषय बनने की ओर बढ़ते हैं। ऐसे में किसी भी स्थान के लिए वे अवसर होने चाहिए जहां सशक्तिकरण हो। मौजूदा मामले में कुछ लोग ये कह रहे हैं कि सुन्नी वक्फ बोर्ड को जो वैकल्पिक जगह दी गई है, उसके जरिए एक अधिक गतिमान स्थितियां पैदा होंगी और बदलाव लाने वाले नए ज्ञान के प्रसार का काम हो सकेगा। यह जगह ऐसी होगी जो सार्वभौमिक विषयों निर्माण करेगी जिसमें दूसरे के लिए नफरत की भावना नहीं बल्कि दूसरों के साथ आपसी सम्मान और मानवीय कद्र की भावना होगी। लेकिन इसके लिए मानसिक अवधारणात्मक जगह में विस्तार की जरूरत होगी। इस लक्ष्य हो हासिल करने के लिए यह भी जरूरी है कि इस स्थान को उत्तर-आधुनिक स्थान की प्रामाणिक पहचान से अलग करके देखा जाए क्योंकि इस पहचान के साथ दूसरों पर हावी होने की इच्छा जुड़ी हुई है।

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