इनकार की राजनीति
.
The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.
औपचारिक और चुनावी राजनीति के परिदृश्य में दो आपसी विरोधी बातों का प्रभाव दिखता है। पहली बात यह कि मतदाता यह दावा करते हैं कि वे विकास, सुशासन और जीवंत राष्ट्रवाद के पक्ष में मतदान करते हैं। इसके जरिए मतदाता ये संकेत देते हैं कि वे निजी हित पर सामूहिक हित को प्राथमिकता देते हैं। यह इनकार अप्रत्यक्ष होता है। लेकिन जो नेता चुनाव लड़ते हैं उनका इनकार अधिक प्रत्यक्ष होता है। वे चुनाव लड़ते वक्त यह दावा करते हैं कि वे इसलिए चुनावी मैदान में नहीं है कि अपने हितों की रक्षा कर सकें बल्कि जनता के हितों की रक्षा के लिए वे चुनाव लड़ रहे हैं। चुनाव के दौरान इस तरह का इनकार तमाम बड़े-बड़े दावों के रूप में दिखता है। ऐसे में इस सवाल को समझने की जरूरत है कि आखिर वे क्या चीजें हैं जो किसी को चुनावी मैदान में उतरने के लिए प्रेरित करती हैं? उन्हें सामूहिक हित प्रेरित करता है या फिर स्व-हित? इस सवाल का जवाब सार्वभौमिक हित के पक्ष में नहीं बल्कि निश्चित हितों के पक्ष में है।
चुनावी राजनीति और औपचारिक राजनीति ने ऐसी परिस्थितियां बनाई हैं कि इससे नेताओं को अपने हितों की रक्षा करने में सुविधा होती है। इसमें सबसे साफ तौर पर बहुत अधिक संपत्तियां अर्जित करना दिखता है। चुनावी राजनीति में बगैर नैतिक बल का निवेश किए संपत्ति में कई गुना ईजाफा हो जाता है। निजी तौर पर लाभ हासिल करने का काम अक्सर नैतिक मूल्यों से समझौता करने से ही होता है।
‘राजनीतिक स्व’ को चुनावी और औपचारिक राजनीति में स्व के स्तर पर सांस्कृतिक निजी संपत्तियों को अर्जित करने का अवसर दिखता है। आत्ममंडन अभी के दौर के कुछ प्रमुख नेताओं की सबसे बड़ी इच्छा दिख रही है। विपदाओं के दौर में सेल्फी के सहारे तस्वीरों से प्रचार हो रहा है और ट्विट के जरिए अक्षरों से प्रचार हो रहा है। इसके जरिए कुछ लोग जहां टिकट पाना चाह रहे हैं तो कुछ लोग सांस्थानिक व्यवस्था में अपने लिए जगह चाह रहे हैं। इसमें सत्ता के प्रति संरक्षण का भाव भी दिखता है।
वितरणकारी संस्थाओं में हर स्तर पर ऐसे लोग सत्ता के बंटवारे की व्यवस्था से जुड़े दिखते हैं। ऐसे में एक नेता की अहमियत सत्ता को बचाए रखने की उसकी क्षमता से जुड़ने लगती है। यह योग्यता पर भारी पड़ने लगती है।
यह कहने की जरूरत नहीं है कि स्वायत्ता को बनाए रखने के लिए जिन अधिकारों का प्रयोग होता है उसके लिए एक सामान्य व्यक्ति की नैतिक क्षमता बनी रहती है। एक नैतिक श्रेणी के तौर पर इसका असर सरकारी क्षेत्र की नौकरियों और बाजार में न्यूनतम समर्थन मूल्य के निर्धारण के तौर पर दिखता है। लेकिन इन संस्थानों की वह क्षमता खत्म हो गई है जिसके जरिए बेरोजगार युवाओं और और संकट में फंसे किसानों को अपनी सामाजिक अहमियत की अभिव्यक्ति का अवसर मिल सके। लेकिन इसके बावजूद वे अपनी अहमियत समझते हैं। ऐसा उन्हें राष्ट्रवाद के विचार की वजह से लगता है। इसकी वजह से उन्हें अपने अस्तित्व के बचाए रखने के लिए सामाजिक सुरक्षा की परवाह थोड़ी कम होने लगती है। लेकिन दूसरी तरफ कुछ खास तरह के नेता इस स्थिति का फायदा उठाकर अपने हितों को मजबूत करने के काम में लगे रहते हैं। हालांकि, इस प्रक्रिया में शामिल नेता अक्सर ये कहते रहते हैं कि वे राजनीति में इसलिए नहीं हैं कि अपने हितों की रक्षा कर सकें बल्कि इसलिए ताकि जनहित सुनिश्चित कर सकें।