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स्वायत्त राजनीति की समझ

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चुनावी राजनीति की मौजूदा समझ में दो असमान्य चलन आत्मसात करने और स्वायत्तता के रूप में दिखते हैं। यकीनन, आत्मसात करने की प्रवृत्ति भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ जुड़ी हुई है। यह पार्टी अन्य दलों के नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करने पर गर्व करती है। इस प्रकार, भाजपा अपने संसदीय चरित्र की पुष्टि एक राजनीतिक घटना के साथ करती है जिसमें राजनीति में शामिल अवसरवादी कुलीन वर्ग विशेष ढंग से ऊपर से ऊपर की ओर बढ़ता है। यह एक क्षैतिज आवजाही है जो लोकतंत्र को एक विशेष रूप से परिभाषित करता है। वहीं दूसरी तरफ ऐसे नेता भी हैं जो वंचित तबकों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं और जो नीचे बने रहते हैं। वे राजनीतिक स्वायत्तता का इस्तेमाल इन वर्गों के चुनावी गोलबंदी के लिए करते हैं। ये नेता स्वायत्त रहते हुए चुनाव लड़ने का राजनीतिक निर्णय लेते रहते हैं। हालांकि, स्वायत्त राजनीति के दावे वास्तविक संदेह को विकसित करने का काम करते हैं। एक व्यक्ति को आश्चर्य होना शुरू हो जाता है कि स्वायत्तता के ये दावें कितनी चीजों को छिपाते हैं और कितने का खुलासा करते हैं।

स्वायत्तता के ये दावे उन बातों को उजागर करते हैं जिनके जरिए राजनीतिक सत्ता पर काबिज होने की कोशिश होती है। आम तौर पर यह काम ठीक चुनाव के वक्त होता है। इन नेताओं के प्रति सही रहते हुए अगर कहा जाए तो उन्हें यह बोध होता है कि जनता के साथ उनका रहना सही है। हालांकि, सत्ता पक्ष के विरोध में बने महागठबंधन से अलग होकर चुनाव लड़ने और एक से अधिक क्षेत्रों से चुनाव लड़ने की बात का परीक्षण तीन स्तर पर करने की जरूरत है। पहली बात तो यह कि एक से अधिक क्षेत्र से चुनाव लड़ने से संबंधित पार्टी की चुनावी ताकत का सही आकलन की सोच प्रभावित होती है। चुनावों के ठीक पहले बनी ऐसी पार्टियां अलग-अलग क्षेत्रों में उतनी प्रभावी नहीं रहती हैं। ये लोग सिर्फ इस संकीर्ण सोच की वजह से अलग-अलग क्षेत्रों से चुनाव लड़ते हैं कि उनका चुनावी आधार बना रहे।

दूसरी बात यह कि ऐसी स्वायत्तता धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील ताकतों के लिए नुकसानदेह साबित होती है। क्योंकि स्वतंत्र तौर पर चुनाव लड़ने से चुनावों में दक्षिणपंथी पार्टियां लाभ की स्थिति में रहती हैं। वहीं तीसरी बात यह है कि जिस वर्ग की बात हो रही है, उस वर्ग के हित ऐसे निर्णयों से गंभीर तौर पर प्रभावित होते हैं। हाशिये के इन लोगों की आवाज बनने के बजाए ऐसे लोग इन्हें लाचार स्थिति में ही छोड़े रहते हैं। ये अलग-थलग ही बने रहते हैं।

स्वायत्तता के साथ जिम्मेदारी भी जुड़ी होती है। जो लोग इसकी बात करते हैं, उन्हें यह समझना होगा कि सिर्फ ऐसी बात करने से हाशिये के लोगों को बराबरी और सम्मान नहीं हासिल होगा। स्वायत्तता की बात करने वाले नेताओं को इसका लाभ यह मिलता है कि सत्ता पक्ष मौके-बेमौके उन पर ध्यान देता है। इससे उनकी मोलभाव की क्षमता बढ़ती है। लेकिन सामाजिक स्तर पर इसका कोई बदलाव नहीं होता। ऐसे में इन्हें समझना होगा कि इनके निर्णयों से जो नुकसान हो रहा है, उसकी भरपाई कैसे हो।

हालांकि, आम तौर पर इस तरह के निर्णयों की वजह से जो नुकसान होता है, वह सिर्फ कुछ खास लोगों तक सीमित नहीं होता बल्कि पूरे संबंधित वर्ग को इसका नुकसान होता है। स्वायत्तता की बात से हाशिये के लोगों के नेताओं को भले ही कुछ लाभ हो लेकिन अलग-थलग जीवन जी रहे इस वर्ग को इसका कोई लाभ नहीं मिलता। ऐसे में स्वायत्ता का इस्तेमाल अपने स्वार्थ के लिए करने की छूट खत्म होनी चाहिए। क्योंकि अगर स्वायत्ता के दुरुपयोग की छूट इन नेताओं को मिली रही तो इससे इन्हें यह लगेगा कि वे एक वैकल्कि राजनीतिक विकल्प दे सकते हैं। स्वायत्तता से बातचीत के लिए थोड़ी संभावना जरूर बनती है लेकिन इसका इस्तेमाल वैकल्पिक राजनीति की राह हमेशा के लिए बंद करने के लिए नहीं होना चाहिए।  यह याद करने की जरूरत है कि भीमराव आंबेडकर ने स्वायत्तता के सिद्धांत का इस्तेमाल बहुत ही रोचक ढंग से किया था।

2.
विलय के उन्माद से परे
भारत में बैंकिंग क्षेत्र में छोटी ईकाई का विकल्प अब भी बेहतर है?

पिछले डेढ़ दशक में भारत ने सार्वजनिक क्षेत्र की कई बैंकों का आपस में विलय देखा है। लेकिन अप्रैल, 2019 से अगस्त, 2019 के बीच तेजी से विलय का काम हुआ। अप्रैल, 2019 में विजया बैंक और देना बैंक का विलय बैंक आॅफ बड़ौदा में करने की घोषणा हुई। पिछले दिनों वित्त मंत्री ने चार और विलय की घोषणा की। ओरिएंटल बैंक आॅफ काॅमर्स और यूनाइटेड बैंक आॅफ इंडिया का विलय पंजाब नैशनल बैंक में होना है। सिंडिकेट बैंक का विलय केनारा बैंक में हो रहा है। आंध्रा बैंक और काॅरपोरेशन बैंक का विलय यूनियन बैंक आॅफ इंडिया। इलाहाबाद बैंक में इंडियन बैंक का विलय होना है। इससे सरकारी बैंकों की संख्या आधी हो जाएगी। विलय के बाद बैंकों का आकार बढ़ जाएगा। पीएनबी का आकार अभी से डेढ़ गुना हो जाएगा। वहीं केनारा बैंक और यूनियन बैंक दोगुने हो जाएंगे। लेकिन क्या इससे सरकारी बैंकों का कामकाज ठीक हो जाएगा?

आकार और कामकाज में सुधार से संबंधित तथ्य बिल्कुल स्पष्ट नहीं हैं। खास तौर पर उनसे संबंधित जिनका आकार 10 अरब डाॅलर से अधिक हो। बड़े आकार के बैंक होने का मतलब यह नहीं है कि उसका प्रदर्शन भी अच्छा हो जाएगा। क्योंकि पहले भी बैंकों ने अच्छा प्रदर्शन दिखाया है। इस सरकार के पिछली कार्यकाल में 2017 में भारतीय स्टेट बैंक में कुछ बैंकों का विलय हुआ। स्टेट बैंक का कारोबार 52 लाख करोड़ रुपये का है और बाजार में इसकी हिस्सेदारी 22 फीसदी है। लेकिन बुल वैल्यू के मामले में यह एचडीएफसी के मुकाबले एक तिहाई पर है। जबकि कारोबार और बाजार हिस्सेदारी के मामले में एसबीआई एचडीएफसी से तकरीबन तीन गुना आगे है।

परिचालन के मामले में विलय से सुधार जरूर हो सकता है। पहली बात तो यह कि बैंकों की संख्या कम होने से निर्णय लेने में कम वक्त लगेगा। बैंकों में वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति के मामले में भी वित्त मंत्रालय पर दबाव कम होगा। वहीं आपस में समन्वय का काम भी आसान होगा। इससे एनपीए की समस्या में भी मदद मिल सकती है। लेकिन क्या इससे बैंकों के खर्च कम होंगे या क्या शाखाओं की संख्या कम होने के बावजूद बैंकों से छंटनी नहीं होगी?

बैंकिंग क्षेत्र में कार्यक्षमता का तात्पर्य इस बात से है कि कोई बैंक अपने संसाधनों को आमदनी में कैसे बदलता है। इस लिहाज से देखें तो सरकार बैंकों का कामकाज काफी बुरा दिखता है। विलय के बाद जो बड़े बैंक बन रहे हैं, वे अधिक कर्ज दे पाएंगे। लेकिन कम संख्या में बड़े बैंक होने के जोखिमों से भी नहीं इनकार किया जा सकता। ऐतिहासिक तौर पर भारत में सरकारी बैंकों में बड़े कारोबारी घरानों को कर्ज देने का पूर्वाग्रह दिखा है। इसकी संभावना कम ही लग रही है कि यह सोच बदलेगी। बल्कि आशंका इस बात की है कि बैंक अपनी वित्तीय स्थिति ठीक करने के लिए ऐसे लोगों को और अधिक कर्ज देंगे। ऐसे में ये विलय कैसे कामयाब होंगे, ये देखा जाना बाकी है।

लेकिन क्या यह सरकार विलय को सफल बनाने की कोशिश इसलिए कर रही है ताकि बैंकिंग क्षेत्र की स्थिति सुधरे? या फिर इसके जरिए सिर्फ सुधार का माहौल बनाने की कोशिश हो रही है? जबकि मूल मुद्दों का समाधान नहीं हो रहा है। विलय को लेकर जो संदेह थे, उसका समाधान सरकार ने नहीं किया। मूल सवाल तो यही है कि हमें बड़े बैंक क्यों चाहिए जब हम मौजूदा बैंकों का प्रबंधन ही ठीक से नहीं कर पा रहे हैं? सरकारी बैंकों में बुरे कर्जों की समस्या कैसे पैदा हुई, यह सबको मालमू है। अगर प्रबंधन मौजूदा संपत्तियों का ठीक से प्रबंध नहीं कर पा रहा है तो और अधिक संपत्तियों का सही प्रबंधन इससे कैसे होगा?

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