कुछ व्यक्तियों को आतंकवादी ठहराना
यूएपीए में किए गए संशोधनों में लोगों के मौलिक अधिकारों को बाधित करने की क्षमता है
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‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के नाम पर बनाए गए कानूनों ने स्वतंत्र भारत के इतिहास पर कई दाग लगाए हैं। अगर इन पैमानों से भी देखें तो गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम संशोधन अधिनियम, 2019 यानी यूएपीए काफी अलग दिखता है। इस बारे में जनता के बीच सबसे अधिक चर्चा इस बात को लेकर हुई है कि 1967 के इस कानून के तहत केंद्र सरकार किसी व्यक्ति को ‘आतंकवादी’ घोषित कर सकती है। इससे सोचने वाले हर व्यक्ति में भय पैदा होता है।
यह कानून सरकार को यह अधिकार देता है कि वह किसी संगठन को ‘आतंकवादी संगठन’ घोषित कर दे। इससे सरकार को ऐसे संगठनों के सदस्यों और सक्रिय समर्थकों पर कार्रवाई करने का अधिकार मिल जाता है। इसके लिए पहले कोई सुनवाई या प्रक्रिया का प्रावधान नहीं है। बल्कि यह काम बाद में एक समीक्षा समिति के द्वारा होता है। इसके प्रमुख सेवारत जज या सेवानिवृत्त जज होते हैं। यह समिति विचार करती है कि संगठन को इस श्रेणी में रखने का निर्णय सही है या नहीं।
सरकार ने राज्यसभा में कहा है कि आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने का काम संगठन नहीं करते बल्कि व्यक्ति करते हैं। इसलिए अगर व्यक्तियों को आतंकवादी नहीं घोषित किया गया तो वे कानून से बच सकते हैं और दूसरे संगठन के रूप में परिवर्तित होकर आतंकी घटनाओं को अंजाम दे सकते हैं। लेकिन आतंकी संगठनों के सदस्यों पर कार्रवाई करने का प्रावधान कानून में निहित था। ऐसे में इस संशोधन का क्या मतलब है?
एक वजह यह बताई गई कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद अब व्यक्तियों को आतंकवादी घोषित करता है। भारत में संयुक्त राष्ट्र चार्टर में शामिल है, इसलिए भारत को भी ये बदलाव करना होगा। लेकिन इससे भी वजह आंशिक तौर पर ही समझ में आती है।
किसी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करने के लिए जिस प्रक्रिया की बात की गई है, वह परेशान करने वाली है। जिस प्रक्रिया के तहत आतंकी संगठन घोषित किए जाते हैं, वही प्रक्रिया व्यक्तियों के लिए भी अपनाई जाएगी। इसमें इस बात पर ध्यान नहीं किया गया कि व्यक्तिगत तौर पर लोगों को संविधान ने मौलिक अधिकार दिए हैं। चाहे वे आतंकवादी ही क्यों न हों। क्या सरकार संविधान के अनुच्छेद-21 से अनजान थी या जानबूझकर इसे दरकिनार किया गया?
यूएपीए के तहत इस तरह का दर्जा देने से तुरंत कोई कानूनी कार्रवाई नहीं होती। लेकिन इसके नकारात्मक परिणाम स्पष्ट हैं। किसी व्यक्ति को इस कानून के तहत आतंकवादी घोषित करने के लिए यह जरूरी नहीं है कि उसे आतंकवाद के आरोप में सजा सुनाई गई हो या फिर वह किसी ऐसे मामले में ट्रायल का सामना कर रहा हो।
ऐसे समय में जब राष्ट्रीय जांच एजेंसियां संदिग्ध आरोपों पर मुस्लिम लोगों को दशकों तक जेल में बंद रखती हैं तो यह संदेह पैदा होना स्वाभाविक है कि इस कानून का निष्पक्ष तौर पर इस्तेमाल होगा। अगर गंभीरता से देखें तो यह तर्क कहीं नहीं ठहरता कि जांच करने और सजा दिलाने में दिक्कत आ रही थी। नए प्रावधानों में से किसी से भी इसमें सुधार की संभावना नहीं दिखती। क्योंकि समस्या अक्षमता से संबंधित रही है।
जिन परिस्थितियों में इन संशोधनों को संसद से पारित कराया गया वह भी चिंताजनक है। लोकसभा में इसे 8 जुलाई को रखा गया था। राज्यसभा ने इसे 2 अगस्त को पारित किया। इसे किसी संसदीय समिति के पास नहीं भेजा गया और न ही बारीकी से इसका परीक्षण किया गया। इसके साथ ही और कई विधेयकों को लोकसभा में बहुमत की वजह से और राज्यसभा में क्षेत्रीय पार्टियों के समर्थन की वजह से सरकार ने बगैर गंभीर बहास के पारित कराया। संसद सिर्फ औपचारिकता बन गई और इसकी ‘उत्पादकता’ को लेकर काफी बात की जा रही है। इससे इस पूरी प्रक्रिया पर सवाल खड़ा होता है। विपक्ष भी सिर्फ रस्म अदायगी के लिए विरोध करता है। 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद तो विपक्ष की भ्रम की स्थिति खत्म ही नहीं हो रही है। इससे पता चलता है कि भारत का लोकतंत्र बुरी स्थिति में है।
2018 में देश भर के कुछ विरोधियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को ‘अर्बन नक्सल’ कहा गया था और उन्हें हिरासत में लिया गया था। आतंकवाद से निपटने के लिए कठोर कानूनों की जरूरत है लेकिन इन संशोधनों का दुरुपयोग हो सकता है। यह सरकार की जिम्मेदारी है कि इस कानून को लागू करते वक्त वह मौलिक अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करे।