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संशोधित सूचना का अधिकार बनाम सहभागी लोकतंत्र

नागरिकों और सरकार में सूचनाओं की विषमता रहने से पारदर्शी लोकतंत्र प्रभावित होता है

 

The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

सूचना का अधिकार कानून में जो संशोधन पारित हुआ है, उससे सूचना का अधिकार और केंद्रीय सूचना आयोग पर नकारात्मक असर का खतरा पैदा हो गया है। संशोधन के पहले की परामर्श संबंधित प्रक्रियाओं का पालन किए बगैर जल्दबाजी में जिस तरह से इसे लाया गया, उससे सरकार की नीयत पर सवाल खड़ा होता है। सरकार इन संशोधनों को कठोर जांच से क्यों बचाना चाह रही थी? इसे संसदीय समिति के पास भेजने को सरकार क्यों नहीं तैयार हुई? इन संशोधनों को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि ये सरकार ऐसा करके संस्थानों को कमजोर करने के काम को आगे बढ़ा रही है। ये संस्थान औपचारिक तौर पर रहेंगे लेकिन इनकी मूल भावना खत्म की जा रही है।

सूचना का अधिकार कानून, 2005 नागरिकों को सरकारों की गोपनीयता और सत्ता के दुरुपयोग पर सवाल उठाने का अधिकार देता है। केंद्र और राज्य के स्तर पर बने सूचना आयोगों के जरिए लोगों को ऐसी सूचनाएं मिलती हैं। ये सूचनाएं सार्वजनिक संपत्ति हैं। इससे एक पारदर्शी लोकतंत्र को बनाए रखने में मदद मिलती है। इस कानून की धारा 13, 15 और 27 में संशोधन किया गया है। इसके जरिए केंद्र सरकार को इसके लिए अधिकृत किया गया है कि वह मुख्य और अन्य सूचना आयुक्तों के कार्यकाल, तनख्वाह, भत्ते और अन्य कामकाजी शर्तों को तय कर सकती है। इससे सूचना आयोगों की स्वायत्ता प्रभावित होगी और इस कानून के प्रभावी क्रियान्वयन बाधित होगी। 

इस संशोधन से बलपूर्वक चलाए जा रहे संघवाद की बात भी साबित होती है। केंद्र सरकार गैर लोकतांत्रिक तरीके से राज्यों के अधिकारों का अतिक्रमण कर रही है। इससे भविष्य में सूचना आयुक्त की संस्था की विश्वसनीयता पर सवाल उठेंगे। यह संस्था नागरिकों और सरकार के बीच सूचनाओं की विषमता दूर करने के लिहाज से बेहद अहम है। इससे लोकतंत्र में सरकार जवाबदेह और पारदर्शी बनती है। कितनी पारदर्शिता है, इस पर यह निर्भर करता है कि समाज के हितों पर कितना ध्यान दिया जा रहा है।

हर साल सूचना के अधिकार के तहत तकरीबन 60 लाख आवेदन किए जाते हैं। वैश्विक तौर पर यह एक अहम कानून बनकर उभरा है।  इन आवेदनों के जरिए कई तरह की सूचनाएं मांगी जा रही हैं। इनमें सरकार को जवाबदेह बनाने से लेकर बुनियादी अधिकारों और देश की सर्वोच्च संस्थाओं से सवाल पूछना शामिल है। इसके तहत लोगों ने ऐसी सूचनाएं मांगी हैं जिन्हें सरकारें देना नहीं चाहती हैं। क्योंकि इससे भ्रष्टाचार, मानवाधिकार उल्लंघन और सरकार के गलत काम उजागर होते हैं। संसद में बहस के दौरान कई सदस्यों ने यह कहा कि पिछले कुछ सालों में यह देखा जा रहा है कि सूचना आयुक्तों के निर्देश के बावजूद आवेदकों को सूचनाएं नहीं दी गईं। 

ऐसे में बुनियादी सवाल यह है कि लोकतांत्रिक तौर पर चुनी गई सरकार नागरिकों को सूचना हासिल करने से क्यों रोकना चाहती है? जागरूक नागरिक सूचनाएं हासिल करके लोक संस्थानाओं की लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली को सुनिश्चित करते हैं। सूचना के अधिकार कानून के जरिए वे अपना योगदान देते हैं। सत्ताधारी पार्टी का लोकतंत्र के प्रति जो विचार है, उसमें नागरिकों को खामोश रखने पर जोर है। नीतियों, निर्णयों और सरकार के कार्यों से संबंधित सूचनाओं के जरिए जिम्मेदारी तय होती है। राजनीति के केंद्र में जनता है न कि शासक और नेता। उच्चतम न्यायालय ने कई फैसलों में बार-बार यह कहा है कि सूचना का अधिकार अनुच्छेद-19 और 21 के तहत मिले मौलिक अधिकारों का एक हिस्सा है। संविधान का अनुच्छेद-19 अभिव्यक्ति की आजादी देता और अनुच्छेद-21 जीवन का अधिकार। मौजूदा सरकार नागरिकों को खामोश प्रजा में बदलना चाह रही है। यहां प्रजा को शासकों से सवाल पूछने की अनुमति नहीं है और सूचना स्रोतों को बंद करके ऐसी किसी संभावना को खत्म किया जा रहा है। इसका नकारात्मक असर खोजी पत्रकारिता पर भी पड़ेगा। पत्रकारों ने सच को उजागर करने के लिए सूचना का अधिकार को एक औजार के तौर पर इस्तेमाल किया है। मूल कानून में संशोधन करके सरकार ऐसी पत्रकारिता को रोकने का काम कर रही है। वैसी भी सरकार की ओर से अपने अनुकूल काम करने वाली मीडिया को ही बढ़ावा दिया जा रहा है।

सूचना का अधिकार आंदोलनों से मिला था। यह आगे बना रहे, इसके लिए भी सामूहिकता के साथ काम करने की जरूरत है। वास्तविकता ये भी है कि सामाजिक आंदोलनों से अलग लोगों ने अपने-अपने स्तर पर भी इसका इस्तेमाल किया है। इससे इसकी मूल भावना प्रतिस्थापित होती है। सैंकड़ों की संख्या में सूचना का अधिकार कार्यकर्ता हत्या, हमले, दमन और उत्पीड़न के शिकार हुए। जब संस्थागत तौर पर ऐसे हमले किए जाते हैं तो व्यक्तिगत तौर पर इनका सामना करना मुश्किल होता है। इन संशोधनों को वापस कराते हुए कानून को फिर से मूल रूप में लाने के लिए जनता को गोलबंद करना होगा। तब जाकर बड़े संघर्षों के बाद हासिल किया गया यह अधिकार जनता के साथ बना रहेगा।

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