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नई पुलिस पहलों की नियति

समुदाय आधारित पुलिस पहलों में नागरिकों के प्रति जवाबदेही सर्वोपरी होनी चाहिए

The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

समुदाय आधारित पहलों के तहत महाराष्ट्र पुलिस ने बेहतर कार्यों को संस्थागत करने का निर्णय लिया है। ताकि इनका अनुकरण प्रदेश के सभी जिलों में किया जा सके। इसके तहत मुंबई का ‘पुलिस दीदी’ कार्यक्रम और पुणे तथा नागपुर पुलिस का ‘भरोसा सेल’ जैसे प्रयोग शामिल हैं। यह स्वागत योग्य कदम दिखता है। लेकिन एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का कहना है कि ये प्रयोग तब रूक जाते हैं जब इन्हें शुरू करने वाले पुलिस अधिकारियों का तबादला हो जाता है। इसका मतलब यह हुआ कि नई सोच संस्थागत नहीं हो पाती। इस बीच सच्चाई तो यह है कि पुलिस की छवि सुधारने के लिए दीर्घकालिक तौर पर कदम उठाने होंगे।

मीडिया में अक्सर ये खबरें आती हैं कि पुलिस ने मानवाधिकारों का उल्लंघन किया। ऐसे में यह समझना जरूरी है कि पूरे तंत्र की समस्या क्या है और इसका क्या समाधान हो सकता है। भारत में प्रति हजार लोगों पर पुलिसकर्मियों की संख्या 1.2 है। यह संयुक्त राष्ट्र की सिफारिशों से कम है। हर राज्य में बड़ी संख्या में पद खाली हैं। काम के बोझ से दबे रहने, अवकाश नहीं मिलने, गलत खान-पान और लंबे समय तक काम करने की समस्या हर जगह है। मीडिया में आई खबरों में बताया गया है कि केरल और मुंबई में पुलिसकर्मियों ने आठ घंटे की कार्यावधि लागू किए जाने का स्वागत किया है। अंग्रेजों के जमाने के प्रशिक्षण पद्धति के बारे में तो बात नहीं ही की जाए तो अच्छा है।

पुलिस बल में जाति और धर्म की विविधता कम है। महिला कांस्टेबल और सह इंस्पेक्टर के प्रति रवैया भी ठीक नहीं रहता। जांच का स्तर काफी खराब होने से अधिकांश आपराधिक मामलों में सजा नहीं हो पाती। अभी जो चुनाव चल रहे हैं उसमें अधिकांश राजनीतिक दलों ने अपने घोषणापत्र में पुलिस सुधार को शामिल किया है। यह एक विडंबना ही है कि सिर्फ दस राज्यों ने ही पुलिस सुधार के कदमों को लागू किया है। प्रकाश सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों, राष्ट्रीय पुलिस आयोग की पांच रिपोर्टों और कई प्रमुख समितियों की सिफारिशों के बावजूद पुलिस सुधार का काम अधूरा है।

इन सभी समस्याओं में सबसे महत्वपूर्ण यह है कि समाज के प्रति पुलिस की जवाबदेही बढ़े। वह भी खास तौर पर आदिवासी, हाशिये के लोगों, दलितों और महिलाओं के प्रति। पुलिस के कामकाज में राजनीतिक दखल की बात अक्सर आती है। यह आरोप सही है और इसके समाधान के लिए कई समितियों ने सिफारिशें की हैं। सामाजिक कार्यकर्ता और वकील यह कहते आए हैं कि राजनीतिक वर्ग पुलिस प्रमुख की नियुक्तियां करता है और फिर उनसे अपने हिसाब से काम कराना चाहता है।

इस माहौल में यह सवाल उठता है कि क्या पुलिस दीदी और भरोसा सेल जैसे प्रयोग पुलिस के प्रति लोगों में विश्वास जगा पाएंगे? आखिर पुलिस को समाज के प्रति कैसे जवाबदेह बनाया जाए? लंबे समय तक खाकी वर्दी को लेकर सवाल नहीं उठे हैं। उन महिला पुलिसकर्मियों के प्रति जो भारतीय पुलिस सेवा से नहीं हैं, नागरिकों और पुरुष पुलिसकर्मियों का बर्ताव ठीक नहीं दिखता। प्रशिक्षण से लेकर पदस्थापना तक पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है।

पुलिस को इस दिशा में काम करना चाहिए कि वह समाज को एक सुरिक्षत माहौल मुहैया करा सके। विशेषज्ञों का कहना है कि यह एकमात्र ऐसी संस्था है जो नागरिकों के खिलाफ बल प्रयोग कर सकती है और उसकी आजादी को कम कर सकती है। ऐसे में महाराष्ट्र पुलिस के अभिनव प्रयोगों को सांस्थानिक बनाने में इन बातों का ध्यान रखते हुए आगे बढ़ना चाहिए।

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