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लोकतंत्र और विनम्रता

विनम्रता के जरिए आक्रामकता और नफरत को पैदा होने से रोका जाता है 

The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

2019 के लोकसभा चुनावों में प्रचार अभियान पर आक्रामकता और नफरत का दबदबा दिखा। वैसे तो यह अलग-अलग पार्टियों के उम्मीदवारों पर अलग-अलग ढंग से दिखा लेकिन इस मामले में सत्ताधारी पार्टी के उम्मीदवार सबसे आगे दिखे। यह सब इसके बावजूद हो रहा था कि चुनाव आयोग ऐसा करने वालों को रोकने की कोशिश कर रही थी। हालांकि, यह हस्तक्षेप बेहद सीमित और भेदभावपूर्ण रहा। भारतीय राजनीति में गलत भाषा का इस्तेमाल रोकने के लिए चुनाव आयोग अपनी शक्तियों को इस्तेमाल करने में अनिच्छुक दिखा। चुनाव आयोग ने कुछ नेताओं के बोलने पर पाबंदी तो लगाई लेकिन ताकतवर नेताओं को आयोग क्लीन चीट देता रहा।

ऐसे में यह सवाल उठना जायज है कि नेता खुद यह क्यों नहीं सोचते कि वे जो कर रहे हैं उससे न सिर्फ उनके विरोधियों पर प्रभाव पड़ता है बल्कि सभ्य समाज को भी झटका लगता है? विनम्रता की क्या भूमिका है खास तौर पर आक्रामकता और नफरत जैसी सामाजिक बुराई से निपटने के लिए?

विनम्रता को स्व-मूल्यांकन के लिए एक नैतिक ताकत के तौर पर देखा जाता है। इसके जरिए किसी भी कीमत पर सत्ता को बनाए रखने की सोच पर लगाम लगती है। विनम्रता होने पर नफरत फैलाने वाले भाषण नहीं दिए जाते। न ही यह ऐसी सोच को बढ़ावा देता है। इसके जरिए एक ऐसी राजनीतिक संस्कृति आगे बढ़ती है जिसमें जमकर उन मसलों पर बहस होती है जो नेता से अधिक जनता के मतलब के अधिक होते हैं। इसमें विचारों की भिन्नता के लिए जगह होती है।

विनम्रता को खतरों के बाद की जरूरत के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि इसे इस बात पर निर्भर होना चाहिए कि किसी नेता ने या सत्ताधारी पार्टी ने जनता के लिए क्या काम किए हैं। वास्तविक विनम्रता सिर्फ चुनावों के वक्त की चीज नहीं है बल्कि यह हमेशा बनी रहने वाली चीज है। कई बार विनम्रता को विरोधियों के खिलाफ हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। पिछले दो महीनों में चुनाव प्रचार के दौरान यही दिखा है। कई नेताओं ने मीडिया के जरिए यह काम किया है।

हालांकि, चुनावी राजनीति में विनम्रता के लिए सफल होना मुश्किल है। क्योंकि इसमें ‘हकों’ की भाषा और ‘गर्व’ की विकृत अनुभूति का दबदबा अधिक दिखता है। अगर किसी समाज में वहां के लोगों की प्रगति होती है तो यह गर्व की बात है। सीमा पर सेना के उपलब्धियों को गर्व का एक विषय माना जा सकता है। लेकिन सिर्फ एक बात पर गर्व करने से एक ‘आक्रामक राष्ट्रवाद’ जन्म लेता है। इससे विनम्र लोकतंत्र कमजोर होता है।

सवाल उठता है कि आक्रामकता के आगे विनम्रता सफल क्यों नहीं होती? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ये नेता जन हित से अधिक हकों की दूसरी भाषा का इस्तेमाल करते हैं। इससे विनम्रता की जमीन कमजोर पड़ती है। यहां हम उन अधिकारों की बात कर रहे हैं जिस पर समाज का एक खास तबका अधिकार जमाता दिखता है और जो बेवजह की आक्रामकता और गर्व पर टिकी है। इससे यह बात आती है कि किसी खास पार्टी का राष्ट्र पर अधिक अधिकार है। यह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के समर्थकों में दिखता है। भारत पर अपने विशेषाधिकारों को स्थापित करने की कोशिश में दूसरे के अधिकारों को खारिज करते दिखते हैं। हिंदुत्व ब्रिगेड के ये लोग ‘पाकिस्तान चले जाओ’ की बात अक्सर करते हैं। इससे ये देश की लोकतांत्रिक संस्कृति को नुकसान पहुंचा रहे हैं। अपनी गलतियों के लिए खुद का बचाव करते हुए अपने विरोधियों की गलतियों की बात करना इनके लिए आम है। ऐसा करके ये नए ढंग से काम करते हुए राजनीति को नई दिशा देने का अपना नैतिक अधिकार खो देते हैं। भारत की राजनीतिक संस्कृति में विनम्रता कहीं खोती जा रही है। हमें यह समझना होगा कि गलत बयानों को रोकना सिर्फ लोक संस्थाओं के संचालन के लिए जरूरी नहीं है बल्कि विनम्रता के मूल्यों को लोकतांत्रिक बनाए रखने के लिए भी यह जरूरी है।

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