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राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व

राजनीतिक अवसरवादिता और अति-पुरुषवादी राजनीति महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ने नहीं दे रही

The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

चुनावी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की मांग के पीछे सिर्फ यही सोच नहीं है कि उनकी मौजूदगी बढ़े बल्कि यह भी है कि राजनीतिक विमर्श में उनकी भागीदारी हो जिसमें अवसरवादिता, लैंगिक भेदभाव और अति-पुरुषवादी विमर्श हावी है। लेकिन प्रियंका चतुर्वेदी का कांग्रेस से शिव सेना जैसी घटनाएं एक दुखद विडंबना की ओर संकेत करती हैं। चतुर्वेदी का आरोप है कि उन्होंने कांग्रेस इसलिए छोड़ी क्योंकि उनके खिलाफ अभद्र व्यवहार करने वालों के खिलाफ पार्टी ने कदम नहीं उठाए। लेकिन वे वैसी पार्टी में गईं जिसने कभी उन मूल्यों का महत्व नहीं दिया जिसकी बात प्रियंका चतुर्वेदी कर रही हैं। इसके बावजूद प्रियंका चतुर्वेदी महिलाओं के अधिकारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहरा रही हैं।
 
इस तरह की घटनाएं राजनीति के ‘नई’ सामान्य बातों की ओर इशारा करती हैं। इसमें बगैर किसी ग्लानी के नंगा करियरवाद हावी दिखता है। ऐसे में इस सोच की परीक्षण की जरूरत है। इस घटना से यह भी पता चलता है कि पार्टियों के लिए उनके सदस्य उनके कर्मचारी की तरह हैं जिनका काम है पार्टी के ब्रांड और छवि की मार्केटिंग करना। ऐसे लोगों को नेता मानना भी ठीक नहीं है। क्योंकि इनका न तो लोगों से संबंध होता है और न ही पार्टी की विचारधारा से। ऐसे में एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जाना सामान्य है क्योंकि इसे काॅरपोरेट संस्कृति का हिस्सा मान लिया गया है।
 
इसमें दिक्कत इस बात को लेकर भी है कि महिला अधिकारों की बात बहुत सीमित दायरे में होती है। एक तरफ तो भ्रष्ट राजनीति की स्वीकार्यता है तो दूसरी तरफ इसके खिलाफ संघर्ष का ढोंग भी है। असली नारीवाद तो यह है कि राजनीति में एक नए तरह की भाषा उपजे। इस वजह से ही लोकतांत्रिक सदनों में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने की मांग उठ रही है। क्या महिला नेताओं का यह रवैया महिलाओं की मदद कर रहा है जिसमें उन्हें लगता है कि सफल होने के पुरुषों की तरह काम करना होगा?
 
राजनीतिक परिदृश्य में महिला प्रतिनिधियों की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए आरक्षण एक महत्वपूर्ण कदम है। पिछले लोकसभा चुनाव में सिर्फ 11 प्रतिशत महिलाएं सांसद बन पाई थीं। इसका मतलब यह हुआ कि 90 लाख महिलाओं पर एक महिला सांसद थी। आरक्षण की मांग और महत्वपूर्ण इसलिए भी हो जाती है क्योंकि पार्टियां महिलाओं को अपेक्षा के मुताबिक टिकट नहीं दे रही हैं। पार्टियां उन्हीं महिलाओं को टिकट दे रही हैं जो चर्चित रही हों या जिनकी कोई राजनीतिक विरासत हो। अधिकांश पार्टियां अपनी उन महिला कार्यकर्ताओं की अनदेखी कर रही हैं जो जमीनी स्तर पर काम कर रही हैं। अगर महिलाओं को टिकट मिलता भी है तो भी उनकी राह आसान नहीं है। पूरे चुनाव प्रक्रिया में विभिन्न स्तर पर पुरुषों का वर्चस्व है।
 
अगर महिलाएं जीतकर राजनीतिक सत्ता भी हासिल कर लेती हैं तो भी यह जरूरी नहीं है कि राजनीति में उनकी उल्लेखनीय भागीदारी सुनिश्चित हो जाए। यह बात उन पार्टियों को देखकर पता चलता है जिनकी अध्यक्ष महिलाएं ही हैं। हालांकि, अध्ययनों में यह बात आई है कि स्थानीय स्तर पर महिलाओं की बढ़ी भागीदारी की वजह से स्थानीय स्तर पर राजनीतिक एजेंडे और गतिविधियों में सुधार आया है। यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि निर्वाचित होने के बाद क्या महिलाएं अलग ढंग से सोचती हैं और क्या व्यापक बदलाव लाने के लिए अलग ढंग से काम करती हैं? आरक्षण से सदनों में उनकी भागीदारी तो बढ़ सकती है लेकिन महिलाओं को राजनीति में सत्ता समीकरणों को बदलने के लिए काम करना चाहिए।
 
महिला मतदाताओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। ऐसे प्रतिनिधियों की जरूरत है जो अपनी मांगों को सही ढंग से उठा सकें और एक नई राजनीतिक संस्कृति के विकास में अपनी भूमिका निभा सकें। इन प्रतिनिधियों को कार्यबल में महिलाओं की घटती भागीदारी और मतदाता सूची में दो करोड़ महिलाओं के नहीं शामिल होने के मुद्दों को उठाना चाहिए। उन्हें महिलाओं के मुद्दों को विस्तार देने की कोशिश करनी चाहिए। 
 
वास्तविक प्रतिनिधित्व का मतलब यह है कि अलग-अलग पृष्ठभूमि वाली महिलाओं को आवाज मिले और इससे राजनीति में नई संवेदना विकसित हो। यह जरूरी है कि लोकतंत्र और नारीवाद के मूल्यों में विश्वास पैदा किया जाए न कि आक्रामक पुरुषवाद और हिंसक सोच का समर्थन किया जाए। नारीवाद के प्रति सिर्फ बात करने से स्थिति नहीं सुधरेगी और न ही इससे रवैये में कोई बदलाव आएगा। महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ने से रवैये में बदलाव तो आएगा लेकिन डर इसी बात की है कि वही राजनीतिक संस्कृति नहीं मजबूत हो जिसमें राजनीति में बने रहने के लिए पुरुषों की तरह काम करने पर जोर होता है।
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