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श्रीलंका में आतंकवादी हमला

श्रीलंका में निर्दोष लोगों की मौत वहां की संकटग्रस्त सरकार की लाचारी को दिखाता है 
 

The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

21 अप्रैल, 2019 को श्रीलंका में हुए आतंकवादी हमले ने सिर्फ इस देश को नहीं बल्कि पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया। ईस्टर के दिन हुए हमले में 350 से अधिक लोगों की जान गई। बाद में इसे संशोधित करके 253 किया गया है। तीन चर्च और कुछ प्रमुख होटलों पर इस्लामिक स्टेट आॅफ ईराक ऐंड सीरिया के आत्मघाती हमलावरों ने हमले किए। आईएसआईएस ने हमलों की जिम्मेदारी ली है। प्रार्थना के वक्त पूजा स्थलों का निशाना बनाया जाना भयावह है। हालांकि, यह हाल के पैटर्न के अनुकूल ही है। न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च में मस्जिद पर हाल ही में हमला हुआ था। इससे संकटग्रस्त श्रीलंका सरकार की लाचारी भी दिखती है। साथ ही यह भी पता चलता है कि दक्षिण एशियाई देशों के धार्मिक अल्पसंख्यक किस तरह की असुरक्षाओं का सामना कर रहे हैं।
 
चिंता की बात यह है कि पहले से खुफिया जानकारी होने के बावजूद ये हमले हो गए। श्रीलंका के प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे ने बताया कि चर्च पर हमले से संबंधित खुफिया जानकारी मिली थी। लेकिन यह सूचना आधिकारिक तौर पर आगे नहीं बढ़ाई गई। श्रीलंका के राष्ट्रपति ही पदेन मुख्य कमांडर होते हैं। रक्षा मंत्रालय और कानून मंत्रालय भी उन्हीं के पास है। इसके बावजूद खुफिया सूचनाओं पर कार्रवाई नहीं करना दिखाता है कि वहां का प्रशासन किस तरह से ढह गया है। खुद राष्ट्रपति ने अक्टूबर, 2018 में तख्ता पलट की कोशिश की थी। उसके बाद से गतिरोध बना हुआ है। हालांकि, प्रधानमंत्री भी अपना पल्ला नहीं झाड़ सकते। जब रक्षा और कानून मंत्रालय को राष्ट्रपति के अधीन लाया जा रहा था तो प्रधानमंत्री चुपचाप इसके लिए मान गए थे। यहां संघर्ष मैत्रिपाला सिरिसेना की श्रीलंका फ्रीडम पार्टीऔर विक्रमसिंघे की यूनाइटेड नैशनल पार्टी के बीच चल रहा है। इसमें सैंकड़ों निर्दोष लोगों की जानें गई हैं। यह एक त्रासदी है कि 2015 में सत्ता में आई सरकार इतनी अक्षम है कि एक दशक पहले तक गृह युद्ध में उलझे देश की स्थिति को सुधार नहीं पा रही है। पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने नस्ली समझौते की कोशिशों को सुरक्षा बलों का मनोबल तोड़ने और राष्ट्रीय सुरक्षा संकट के लिए जिम्मेदार ठहराया है। इसी साल वहां चुनाव होने हैं। ऐसे में लोगों को यह भय सता रहा है कि इस तरह के मुद्दों पर धु्रवीकरण की कोशिश हो सकती है। इसमें आग में घी डालने का काम राष्ट्रपति आपातकाल से संबंधित अपने विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करके कर सकते हैं। इससे श्रीलंका में धार्मिक अल्पसंख्यकों की असुरक्षा बढ़ती जाएगी। इसी का फायदा आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठन उठा रहे हैं। 
 
हालांकि, यहां के धार्मिक और नस्ली तनाव को इस हमले की वजह नहीं माना जा सकता। क्योंकि यहां के मुस्लिमों और ईसाइयों में तनाव का इतिहास नहीं रहा। बल्कि दोनों ही बहुसंख्यक सिंहला बौद्ध उग्रवादियों के निशाने पर रहे हैं। लेकिन पिछले दिनों में संसद में भेदभाव वाले कदमों की मांग उठी है। मुस्लिम समाज के प्रति नफरत फैलाने वाली बातें की गई हैं। पोर्ट शहर नेगोंबो से अहमदिया समुदाय के 700 लोग भागे हैं और छिपकर जिंदगी गुजार रहे हैं। पिछले दस सालों में सिंहला बौद्ध उग्रवादी संगठन बोदु बाला सेना ने कई बार मुस्लिम समुदाय पर हमले किए हैं। 1980 और 1990 के दशक में मुस्लिम समाज पर जाफना में एलटीटीआई का दमन चलता था। यहां सउदी अरब के सह पर वहाबी सोच का प्रचार भी बढ़ रहा है। इससे इसके प्रभाव में भी बढ़ोतरी हो रही है। इससे अल्पसंख्यक समुदाय के कुछ लोगों को कट्टर बनाने का काम चल रहा है। ऐसे में श्रीलंका के राजनीतिक नेतृत्व की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह 2015 का वादा निभाए और बहुसंख्यकवाद के भूत को खदेड़े। ऐसा नहीं करने पर दक्षिण पंथी उग्रवाद बढ़ेगा ठीक उसी तरह जिस तरह वैश्विक स्तर पर बढ़ रहा है। इसके गंभीर नतीजे होंगे।
 
भारत की दृष्टि से सबसे चिंताजनक बात यह है कि नरेंद्र मोदी अपनी चुनावी रैलियों में इस हमले को बार-बार उठा रहे हैं। इसकी आलोचना श्रीलंका के टिप्पणीकारों और नागरिकों ने की है। यह बात ध्यान में रहनी चाहिए कि भारतीय प्रधानमंत्री का इस तरह का रुख दक्षिण एशिया में भारत की कमजोर हुई स्थिति को और कमजोर करेगा।
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