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चुनावी अभियान में दर्शक के रूप में जनता

चुनावों के आसपास जो विमर्श चल रहा है उसमें आम जनता के विचारों पर कुठाराघात की प्रवृत्ति दिख रही है
 

The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

लोकसभा चुनावों की घोषणा के बाद सत्ताधारी गठबंधन और विपक्षी पार्टियों की ओर से चुनाव प्रचार का काम जोर-शोर से चल रहा है। इन अभियानों से ही यह तय होगा कि कौन सा मुद्दा चुनावों के केंद्र में आएगा और किस पर लोग वोट देंगे। यह भी तय होगा कि क्या इन चुनावों में लोग अपनी वाजिब चिंताओं को जाहिर कर पाएंगे। प्रतिनिधित्व वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव एक ऐसा अवसर होता है जब लोगों से जुड़े मुद्दों पर विमर्श होता है। यह भी परखा जाता है कि इन मसलों पर सरकार का क्या रुख रहा। लेकिन हाल के दिनों के चुनाव अभियानों से यह चीज गायब दिखती है। सामूहिक विमर्श का भाव गायब दिखता है। दो बातें अब दिखती हैं। पहला तो यह कि प्रचार अभियान देखकर ऐसा लगता है कि राष्ट्रपति के लिए वोट मांगे जा रहे हों। वहीं दूसरी तरफ स्थानीय निकायीकरण भी दिखता है। 
 
राष्ट्रपति चुनाव की तर्ज पर प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के चेहरे पर वोट मांगे जाते हैं। इससे चुनावी विमर्श की संभावना खत्म हो जाती है और मुकाबला व्यक्तित्व का हो जाता है। वहीं स्थानीय निकायीकरण के तहत उम्मीदवार के क्षेत्र के प्रदर्शन पर विमर्श सीमित हो जाता है। इसमें तो फिर भी लोकतांत्रिक परंपराएं हैं लेकिन राष्ट्रपति की तर्ज पर लोकसभा का चुनाव अभियान चलना लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल नहीं है। इसके बावजूद ये दोनों मिलकर आम लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों को कम कर रहे हैं। इससे एक तरफ केंद्र में एक मजबूत नेता का व्यक्तित्व आ जाता है। निर्णय क्षमता नेता चुनने का पैमाना बन जाता है। हमने हाल में यह देखा है कि निर्णय क्षमता या भाषण देने की कला एक नेता में होना और दूसरे में नहीं होना चुनावी मुद्दा बन जाता है। इससे होता यह है कि नीतियों पर सवाल उठाने के जनता के हक की हकमारी हो जाती है। न ही जनता विपक्ष द्वारा पेश किए जा रहे विकल्प पर सोच पाती है। वहीं बड़े फलक पर देखें तो चुनावों को व्यक्तित्व आधारित बना देने से नीतियों को बरकरार रखने का एक माहौल बनता है और इसमें मतदाताओं की भूमिका सीमित होती जाती है। फिर यह यह सवाल उठता है कि इस क्षमता के बगैर किसी लोकतंत्र का क्या मतलब रह जाता है?
वहीं स्थानीय निकायीकरण से मुद्दे बेहद सीमित हो जाते हैं। स्थानीय मुद्दों पर चर्चा तो होती है लेकिन बड़े मुद्दे पीछे छूट जाते हैं। थोड़े व्यापक प्रकृति वाले स्थानीय सवाल भी पीछे रह जाते हैं। दिल्ली में जब सत्ता की चाबी दूर होने लगती है तो जनता गली के मसलों तक सीमित हो जाते हैं। लेकिन यह भी सच है कि भारत में दिल्ली की सत्ता की चाबी देश की गलियों से ही निकलकर आती है। ऐसे में गलियों के दायरे में सिमटे लोगों को अपनी ताकत का अहसास होना चाहिए क्योंकि दिल्ली के फैसले का असर उनकी गलियों में भी होती है। सिर्फ स्थानीय मुद्दों पर चुनाव को सीमित कर देने से मतदाताओं को हर विषय की जानकारी नहीं मिल पाती है और वे पूरी जानकारी के साथ मतदान का काम नहीं कर पाते हैं। इन दोनों शैलियों से राजनीतिक दलों की भूमिका भी कम होती जा रही है। इन दोनों शैलियों को अपनाया जाना वैचारिक तौर पर भी राजनीतिक दलों की गिरावट दिखाता है। लेकिन इन दोनों शैलियों की वजह से जनता की नजर में भी राजनीतिक दलों की भूमिका सीमित होती जा रही है।
 
इसका एक प्रमाण यह है कि चुनावी घोषणापत्र का महत्व लगातार घटा है। न तो जनता की इसमें दिलचस्पी रही है और न ही पार्टियों के प्रचार अभियान के केंद्र में घोषणापत्र होता है। 2014 में भारतीय जनता पार्टी ने पहले चरण के मतदान के दिन घोषणापत्र जारी किया था। लोगों की रुचि इसलिए भी कम हुई है क्योंकि इसके जरिए किए जाने वाले वादों से उनका भरोसा उठ गया है। पार्टियों और मतदाताओं के बीच घोषणापत्र को लेकर संवाद नहीं दिखता। न ही मीडिया में इस पर खास चर्चा होती है। इससे हमें न सिर्फ अभी की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति बल्कि भविष्य का भी थोड़ा अंदाज होता है। लोगों को यह भय सता रहा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के नियंत्रण वाली सरकार को एक कार्यकाल और देना संविधान की मूल भावना से खिलवाड़ होगा। अगर यह 2019 के चुनाव को आजादी के बाद का सबसे महत्वपूर्ण चुनाव बनाता है तो यह नागरिकों की जिम्मेदारी है कि चुनावों को लेकर होने वाले राजनीतिक विमर्श में गंभीरता दिखे।
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