किसका समुद्र, किसका तट?
मछुआरों का पुनर्वास अधिकार आधारित होना चाहिन न कि सिर्फ दिखावे के लिए
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पिछले पांच सालों से मुंबई के स्थानीय मछुआरे विवादित तटीय सड़क परियोजना को लेकर विरोध जता रहे हैं। इस परियोजना से उन्हें दिक्कत यह है कि पीढ़ियों पुरानी उनकी रोजी-रोटी छिन रही है। शहरों की आधुनिकता और हाशिये पर रहने वाले लोगों में संघर्ष नया नहीं है। 1980 के दशक में ओल्गा टेलिस बनाम बाॅम्बे म्युनिसिपल काॅरपोरेशन (बीएमसी) मामले में उच्चतम न्यायालय ने भारत के संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत ‘जीवन के अधिकार’ की व्याख्या करते हुए इसे ‘जीवनयापन के अधिकार’ से भी जोड़ने का ऐतिहासिक काम किया था। अदालत ने कहा था कि कोई भी व्यक्ति जीवनयापन के माध्यम के बगैर नहीं जीवन जी सकता। लेकिन उस फैसले के तीन दशक के अंदर ही मछुआरों के कई समुदायों के जीवनयापन को लेकर अनिश्चितता के बादल घिर गए हैं। न तो केंद्र की सरकार और न ही राज्य की सरकार इनके प्रति संवेदनशील है। अदालत का रवैया भी उनके अनुकूल नहीं दिख रहा।
इस परियोजना के खिलाफ वर्ली कोलिवाड़ा नखवा और वर्ली मच्छीमार सर्वोदय सहकारी सोसाइटी की सुनवाई करते हुए बाॅम्बे उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को इनके पुनर्वास की योजना नहीं बनाने के लिए जिम्मेदार ठहराया। लेकिन परियोजना को बंद करने को लेकर अदालत ने कुछ नहीं किया। जबकि इस परियोजना की वजह से मछुआरों का जोखिम बढ़ गया है। मूल सवाल यह होना चाहिए कि लोकतंत्र में पूंजीवादी अतिक्रमण को रोकने के लिए क्या उपाय हों। क्योंकि ऐसा करना न सिर्फ लोकतंत्र की भावना के साथ अन्याय है बल्कि सरकार द्वारा जनता के संवैधानिक अधिकारों का भी उल्लंघन है।
यह देश की सबसे बड़ी अवसंरचना परियोजना है। इसमें प्रति किलोमीटर निर्माण पर 1,200 करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। लेकिन चुनावी लाभ से अधिक इसकी कोई उपयोगिता नहीं है। यह परियोजना किसी व्यापक अध्ययन पर आधारित नहीं है। इसलिए इससे शहर के यातायात को जाम से कितनी मुक्ति मिलेगी, कहा नहीं जा सकता। अगर नीयत जाम से मुक्ति दिलाने की है तो पहले मेट्रो परियोजना को क्यों नहीं पूरा किया जा रहा है? तटीय सड़कें मुंबई शहर की समस्याओं का समाधान नहीं हैं। इसकी एक कीमत यह भी है कि इससे तटीय पारिस्थितिकी तंत्र पर भी बुरा असर पड़ेगा।
इस स्थिति को सिर्फ विकास संबंधित उलझन के तौर पर नहीं देखा जा सकता। पिछले दो दशक में तटीय विकास के जो प्रमाण हैं, उनमें भी पिछले पांच साल के, उनसे पता चलता है कि ये कार्य सिर्फ कल्याण की राजनीति की आड़ में काॅरपोरेट जगत को लाभ पहुंचाने के लिए हुए हैं। गुजरात से केरल तक बड़े पैमाने पर तटीय जमीन को कंपनियों को दे दिया गया। कहीं विशेष आर्थिक क्षेत्र के नाम पर तो कहीं तटीय नियमित क्षेत्र और तटीय प्रबंधन क्षेत्र के नाम पर। इससे एक तरफ तो मछुआरे बेदखल हुए तो दूसरी तरफ औद्योगिक और निर्माण संबंधित गतिविधियां बढ़ने से उनका पारंपरिक जीवनयापन प्रभावित हुआ।
नीली अर्थव्यवस्था के नाम पर आई सरकार की नीतियां भी गड़बड़ हैं। इससे भी मछली पालन का पारंपरिक प्रबंधन करने वाली संस्थाएं बाहर हुई हैं। काॅरपोरेट जगत के अनुकूल नीतियां बनाकर समुद्री संसाधनों पर उन्हें कब्जा जमाने का मौका दिया जा रहा है और मछुआरों को उनके पैतृक जगहों से बेदखल किया जा रहा है।
सीएमजेड से सागरमाला तक, मौजूदा सरकार की सभी योजनाओं का मछली पालन से केाई लेना-देना नहीं है। नीली अर्थव्यवस्था की बात भी सिर्फ कहने के लिए है। इनमें से भी कोई भी नीति इस व्यवस्था के विविधता को नहीं स्वीकार करती। विकास के नाम पर पारंपरिक तौर पर रहे मछुआरों को उजाड़ा जा रहा है। ऐसे में जो लोग नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित करने में सरकार की नाकामी पर सवाल पूछ रहे हैं, पुनर्वास का फैसला करके उन्हें चुप कराया जा सकता है।