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क्या मजदूरों को संगठित करना एक राजनीतिक कार्य नहीं है?

गैर-राजनीतिक मजदूर संगठन श्रमिक वर्ग के लिए कुछ नहीं कर सकते
 

The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

भारत के मजदूर संगठन दो तरह की चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. रोजगार की स्थिति खराब होने के साथ-साथ कामकाजी परिस्थितियां भी खराब हुई हैं. इन संगठनों के सरकार के श्रम सुधारों का भी सामना करना पड़ रहा है जो कि श्रमिकों के अनुकूल नहीं हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भारतीय मजदूर संघ ने कंफेडरेशन आॅफ सेंट्रल ट्रेड यूनियन्स बनाया है. यह काम इसने नैशनल फ्रंट आॅफ इंडियन ट्रेड यूनियन के साथ मिलकर किया है. यह कांग्रेस से संबद्ध इंडियन नैशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस से अलग होकर बना है. मजदूर संघ ने कंफेडरेशन को गैर-राजनीतिक बता रहा है. ऐसे में इस नए संगठन को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं. पहली बात तो यह कि क्या ऐसे किसी मोर्चे की अभी कोई जरूरत है? दूसरा सवाल यह है कि क्या मजदूरों की समस्याओं को देश की दूसरी राजनीतिक समस्याओं से अलग करके देखा जा सकता है? जो दस मजदूर संगठन इस कंफेडरेशन के हिस्सा नहीं हैं, उन्होंने केंद्र सरकार के ट्रेड यूनियन कानून, 1926 में संशोधन की कोशिशों का विरोध किया है. ये संगठन इस कोशिश को मजदूर संगठनों में राजनीतिक दखल मान रहे हैं. लेकिन भारतीय मजदूर संघ इस विरोध में शामिल नहीं है. 
 
बमुश्किल आठ फीसदी कामकाजी लोग औपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं. बाकी 92 फीसदी लोग अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं. इनकी कामकाजी परिस्थितियों पर ध्यान देने की जरूरत है. असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे लोगों को संगठित करना बड़ा काम है. ऐसे में नया कंफेडरेशन क्या मदद करेगा? बढ़ते हुए अनौपचारिक क्षेत्र में युवा और महिलाओं की संख्या बढ़ रही है. सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में रोजगार के अवसर पैदा हुए हैं. वहीं परिवनह क्षेत्र में निजी टैक्सी सर्विस आने से नई तरह की चुनौतियां पैदा हुई हैं. अधिकांश सार्वजनिक उद्यमों को हर सरकार की दखल को झेलना पड़ता है. मजदूरों और उनके संगठनों से उनसे जुड़े मसलों में भी शायद ही कभी संवाद किया जाता है. ठेका पर काम करने की व्यवस्था वस्त्र उद्योग में शुरू हुई और अब दूसरे क्षेत्रों में भी इसे लागू किया जा रहा है. यह सब ईज आॅफ डूइंग बिजनेस को बढ़ावा देने के नाम पर हो रहा है. इसके तहत किसी मजदूर को हटाने के लिए नोटिस देने की भी जरूरत नहीं है. 1970 के दशक से ही मजदूर संगठन ठेका मजदूरी की समस्या का सामना कर रहे हैं.
 
मौजूदा मजदूर संगठनों का अस्तित्व ही खतरे में है. नई चुनौतियों से उनके निपटने की क्षमता पर भी काफी दबाव है. देश की मौजूदा राजनीतिक स्थितियों से अलग इन समस्याओं का समाधान कैसे होगा? भारतीय मजदूर संघ भी ठेका मजदूरी की नई व्यवस्था का विरोध करती है. साथ ही उसने विभिन्न श्रम कानूनों को कोड आॅफ वेजेज बिल, 2017 में एक करने का भी विरोध किया है. साथ ही उसने विदेशी निवेश से रोजगार सृजन पर भी श्वेत पत्र लाने की मांग की है.
मजदूर संघ ने नरेंद्र मोदी सरकार की मजदूर विरोधी नीतियों का विरोध किया है. लेकिन सितंबर, 2015 और इसके बाद इन नीतियों के विरोध की बात जब भी आई तो मजदूर संघ ने दूसरे संगठनों का साथ नहीं दिया. उसका कहना है कि वह हड़ताल में इसलिए नहीं शामिल होती क्योंकि वह राजनीति करने में यकीन नहीं करती बल्कि वह मजदूरों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने में यकीन करती है.
 
संगठित मजदूर आंदोलनों की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि ये संगठन संगठित होकर सरकार पर दबाव नहीं बना पा रहे हैं. न ही कोई सार्थक संवाद सरकार के साथ कायम हो पा रहा है. एक से अधिक यूनियन नेता ने यह कहा है कि एनडीए सरकार मजदूर संगठनों से बातचीत में यकीन नहीं करती.
 
मजदूर संगठनों के सामने यह चुनौती है कि वे कैसे मजदूरों की समस्याओं को लोगों की चिंता का विषय बनाते हैं. उन्हें जनता को यह समझाना होगा कि श्रम सुधार लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला है. ऐसा करने के लिए प्रगतिशील राजनीतिक और सामाजिक अभियानों के साथ समन्वय करना होगा. रोजगार के बगैर हो रहे आर्थिक विकास में श्रमिक संगठनों की सदस्यता नहीं बढ़ रही है. सरकार श्रम नीतियों पर संसद में बहस नहीं करना चाहती. ऐसे में मजदूर संगठनों के सामने यही विकल्प बचता है कि इन मुद्दों को लोगों के बीच ले जाए और सामूहिक दबाव बनाने का काम करें. इसके लिए गवर्नेंस से संबंधित मुद्दों और राजनीतिक मुद्दों पर भी ध्यान देना होगा. इसमें कंफेडरेशन कहां फिट बैठता है?
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