जीएसटी की जटिल पहेली
क्या भारत का वस्तु एवं सेवा कर की प्रगति चुनावी मुद्दे से आगे की हो सकती है?
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जुलाई, 2017 में जीएसटी के लागू होने के बाद से इससे संबंधित 400 से अधिक अधिसूचनाएं जारी हुई हैं. इनमें से ज्यादातर क्रियान्वयन की जटिलताओं से संबंधित हैं. 2019 के लोकसभा चुनावों को देखते हुए भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों इसमें सुधार के वादे कर रहे हैं. भाजपा सरकार 40 श्रेणियों में से 23 चीजों को 18 फीसदी या इससे कम जीएसटी के दायरे में ले आई है. मीडिया की खबरों में यह बताया जा रहा है कि कांग्रेस एक दर वाली जीएसटी 2.0 लाने का वादा अपने घोषणा पत्र में करने वाली है. लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इन सुधारों से कैसे जीएसटी की जटिलताएं दूर होंगी. भारत के वित्तीय संघवाद, अनुपालन और छोटे कारोबारियों के भविष्य को लेकर कई सवाल अनुत्तरित हैं.
कर सुधारों का चुनावी मुद्दा बनना कोई नई बात नहीं है. मलेशिया में जन दबाव में सरकार को कर सुधार वापस लेना पड़ा. ऐसा तब करना पड़ा जब जीएसटी के उनके संस्करण से उन्हें कुल राजस्व का तकरीबन 20 फीसदी आ रहा था. ऐसे में जीएसटी को भारत में वापस लेने की कीमत का अहसास होना चाहिए. दोनों मुख्य दलों में से एक इस अवधारणा की जनक खुद को मानती है तो दूसरी खुद को लागू करने वाली पार्टी मानती है. ऐसे में वित्तीय संघवाद पर सवाल उठता है.
आर्थिक मामलों में कांग्रेस के प्रवक्ता गौरव वल्लभ ने हाल ही में कहा कि जीएसटी 2.0 लाने के लिए संविधान संशोधन की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि जीएसटी परिषद इन सुधारों को लाने में सक्षम है. इस बात में संघीय ढांचे को लेकर वही स्वर झलकता है जैसा एनडीए का रुख रहा है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हर राज्य की आर्थिक चुनौतियां अलग-अलग हैं. उदाहरण के तौर पर पंजाब चाहेगा कि बिजली, रियल एस्टेट और पेट्रोलियम को जीएसटी के दायरे में लाया जाए और वस्तुओं और सेवाओं के लिए एक ही कंपोजिशन स्कीम हो लेकिन संभव है कि दूसरे राज्य ऐसा नहीं चाहें.
तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की कामयाबी से जीएसटी परिषद में सत्ता समीकरण बदला है. लेकिन इससे जीएसटी में बड़े सुधारों की उम्मीद नहीं की जा सकती. अगर कांग्रेस 2019 में केंद्र की सत्ता में आती भी है तो भी जीएसटी परिषद के जरिए किसी भी सुधार के लिए तीन चैथाई बहुमत की जरूरत होगी. इसलिए राज्यों की भूमिका महत्वपूर्ण रहने वाली है.
नेताओं और नीतिनिर्धारकों में भी जीएसटी के परिणामों को लेकर स्पष्टता नहीं है. ऐसे में कई कदम उठाए जा रहे हैं. जुलाई, 2017 से जीएसटी लागू होने के बाद रसोई गैस पर प्रति सिलिंडर 32 रुपये अधिक चुकाने पड़े. लेकिन चुनाव नजदीक देखकर जनवरी, 2019 से बगैर सब्सिडी के सिलिंडर की कीमतों में 120.50 रुपये और सब्सिडी ाली सिलिंडर में 5.90 रुपये की कमी की गई है. आगे और सुधार की बात हो रही है. भारत जैसे विविध आर्थिक गतिविधियों वाले देश में जीएसट लागू करना बेहद जटिल काम है. इसलिए गलतियां होना स्वाभाविक है. लेकिन यह भी समझना जरूरी है कि ऐसा करने के पीछे क्या राजनीतिक सोच है?
पिछले चार दशकों में कई सरकारें जीएसटी की तरह के सुधारों को लागू करने से बचते रही हैं. लेकिन एनडीए सरकार ने जल्दबाजी में जीएसटी लागू कर दिया. यह सहज आर्थिक बुद्धि के अनुकूल नहीं था. क्योंकि जो फायदे गिनाए जा रहे थे, वे आपस में संबंधित नहीं हैं. वह चाहे जीएसटी से कर संग्रहण बढ़ने की बात हो या फिर महंगाई कम होने और आर्थिक विकास बढ़ने की बात हो. सबसे बुरी बात यह रही कि एनडीए सरकार ने सभी के लिए जीएसटी के रूप में एक ही नाप का जूते बना दिए. जबकि छोटे और बड़े कारोबारियों की जरूरतें एक जैसी नहीं हैं. इससे असंगठित क्षेत्र में अफरा-तफरी मच गई. इसका फायदा बड़े उद्योगों को मिला.
पार्टी की राजनीतिक इच्छाशक्ति का मतलब यह है कि वह अस्थिरता को दूर करे न कि नए वादों के जरिए नई पहेली बनाए. जीएसटी को वापस लेना व्यावहारिक तौर पर संभव नहीं है. ऐसे में राजनीतिक दलों को सिर्फ अपने लक्षित वर्ग को लुभाने का मुद्दा इसे नहीं बनाना चाहिए. लोगों को लंबे समय तक अपने साथ लाने के लिए नीतिनिर्धारकों को और व्यापक दृष्टिकोण अपनाना होगा. उन्हें ढांचागत खामियों को दूर करना होगा. करों और कर में छूट को और सरल बनाने के साथ कर की दरों को भी सरल बनाना होगा. लेकिन यह सब कुछ देश के लोकतांत्रिक ढांचे को ध्यान में रखते हुए करना होगा.