पागलपन के पीछे
सरकार और रिजर्व बैंक के बीच अपने महत्व को स्थापित करने के लिए चले संघर्ष में आर्थिक दूरदर्शिता से समझौता हो गया है
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भारतीय रिजर्व बैंक और सरकार के लिए चली हालिया रस्साकशी से न सिर्फ वित्तीय नीतियों बल्कि पूरे अर्थव्यवस्था की कई खामियों का पता चलता है. रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य के संबोधन के विश्लेषण के बाद पता चलता है कि रिजर्व बैंक अर्थव्यवस्था और रिजर्व बैंक की स्वायत्ता के लिए जिस दीर्घावधि की नीति की बात कर रहा है, उसकी बुनियाद गड़बड़ है. पहली बात यह कि रिजर्व बैंक अल्पावधि की महंगाई से अधिक चिंतित दिखता है बजाए दीर्घावधि के विकास की चिंताओं के. दूसरी बात यह कि रिजर्व बैंक स्वायत्ता सिर्फ सरकार से चाहता है न कि बाजार और काॅरपोरेट समूहों से. जब तक सामाजिक आयाम जुड़ा हो तब तक पूर्ण स्वायत्ता जैसी कोई चीज नहीं होती.
नौकरशाही का प्रभाव बढ़ने के बाद से रिजर्व बैंक लगातार वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देने में नाकाम रहा है. प्राथमिकता के आधार पर कर्ज देने जैसे कार्यक्रमों को बगैर सोशल आॅडिट के ठीक से लागू नहीं किया गया. रिजर्व बैंक ने 1990 के दशक से जो नीतियां अपनाई उससे सार्वजनिक खर्चों में कमी आई, प्रत्यक्ष आयकर घटा, विकास पर होने वाला खर्च घटा और इन सबकी वजह से गैरबराबरी बढ़ी. इस तरह की वित्तीय सुदृढता से संबंधित प्रावधान आरर्बीअइा कानून में संशोधन करके शामिल किए गए. इससे पूरी दुनिया में भारत की छवि कम कर लेने वाले और कम खर्च करने वाले देश की बनी. इससे जीडीपी के मुकाबले कर्ज दिया जाना भी कम हुआ. इसमें और कमी तब आएगी जब सरकार एनके सिंह समिति की सिफारिशों पर जीडीपी और कर्ज का अनुपात 2024-25 तक 40 फीसदी पर लाएगी. यह लक्ष्य मौजूदा सरकार के ‘मिनिमग गवर्नमेंट और मैक्सिमम गवर्नेंस’ की विचारधारा के अनुकूल ही है.
इन सबके बीच इस सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी जैसे दुस्साहसी निर्णय भी लिए. इससे पूरी अर्थव्यवस्था में अस्थिरता आई. छोटे कारोबारियों के लिए काम करना मुश्किल हो गया. रोजगार के अवसरों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा. घरेलू बचत और निवेश में कमी आई. ऐसे में अगले लोकसभा चुनावों को देखते हुए सरकार का आत्मविश्वास कम लग रहा है और ऐसे में क्या सरकार अपनी लाचारी से निपटने के लिए रिजर्व बैंक को मनाने की कोशिश कर रही है?
सरकार और रिजर्व बैंक के बीच विवाद की असल वजह यह है कि बैंक ने एनबीएफसी, एमएसएमई, बिजली कंपनियों आदि को कर्ज देने संबंधित शर्तों में बदलाव की शुरुआत की है. ऐसा इसलिए क्योंकि इनका एनपीए बढ़ता जा रहा है. इसके अलावा बैंक बोर्ड की भूमिका का भी मसला है. बेसल नियमों के तहत 8 फीसदी पर जोखिम वाले रिजर्व का प्रावधान है लेकिन रिजर्व बैंक इसे 9 फीसदी करना चाहता है. इस पर भी विवाद है.
इस विवाद से न सिर्फ यह पता चलता है कि सरकार रिजर्व बैंक पर अनावश्यक दबाव बनाकर निर्णय कराती है बल्कि यह भी पता चलता है कि आरबीआई की स्वायत्ता के प्रति सरकार में कोई सम्मान नहीं है. सरकार ने 59 मिनट में एमएसएमई को एक करोड़ रुपये कर्ज देने की योजना शुरू की है. लेकिन कर्जों से जुड़ी आवश्यक चिंताओं को दरकिनार नहीं किया जा सकता. बोर्ड के मसले पर सरकार को यह समझना होगा कि रिजर्व बैंक का बोर्ड सिर्फ सलाह दे सकता है. यह कंपनी कानून के तहत बने बोर्ड की तरह नहीं है. इस मौद्रिक और बैंकिंग नीतियों पर कोई निर्देश नहीं दे सकता. आरबीआई के रिजर्व के मसले पर तीन समितियां बनीं और सबने यह माना कि मुश्किल परिस्थितियों से निपटने के लिए 12 फीसदी का रिजर्व उपयुक्त होगा. इसलिए आपातकालिन रिजर्व का सम्मान किया जाना चाहिए. बैकों के जोखिम से निपटने वाले रिजर्व पर बातचीत की संभावना है. रिजर्व बैंक को भी यह समझना होगा कि जनता के कल्याण पर सरकार की सोच के मोटे-मोटे सिद्धांतों का ध्यान उसे रखना होगा.