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महिलाओं पर कैसे यकीन करें

पितृसत्ता से बाहर निकलकर अब महिलाओं ने अब बोलना और अपने अधिकारों को हासिल करने की कोशिश शुरू की है

The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

दो महिलाओं ने पिछले हफ्ते अपने यौन उत्पीड़न को दुनिया के सामने रखा. अमेरिका में मनोविज्ञान की प्रोफेसर क्रिस्टिन ब्लैसी ने सुप्रीम कोर्ट में जज बनने जा रहे बे्रट एम. कवानौग के बारे में कहा कि 1982 में कवनौग ने उनका यौन शोषण किया जब वे दोनों किशोर थे. मुंबई में अभिनेत्री तनुश्री दत्ता ने कहा कि अभिनेता नाना पाटेकर ने 2008 में एक फिल्म सेट पर उन्हें प्रताड़ित किया और फिल्म जगत ने उन्हें बाहर कर दिया.
इन बातों का काफी महत्व है. मीटू अभियान के बाद कई महिलाओं ने इस तरह की बातों को सामने लाया. यौन उत्पीड़न के मामले पुरुषों की ताकत और सत्ता से निकलते हैं. हाई स्कूल में पढ़ने वाले एक शराबी किशोर और राजनीतिक रसूख रखने वाले एक अभिनेता, दोनों में से किसी को दंड का भय नहीं है.
 
36 साल और दस साल पहले के इन घटनाओं का पीड़ितों ने इस उम्मीद से साझा किया कि अब उनके साथ न्याय होगा. अक्टूबर, 2017 में 80 महिलाओं ने हाॅलीवुड के निर्माता हार्वे विंसटिन के खिलाफ यौन उत्पीड़न के मामलों का जिक्र किया था. तब से मीटू अभियान काफी बढ़ा लेकिन तब से अब तक क्या बदला है?
 
ढांचागत तौर पर न तो अमेरिका में कोई बदलाव हुआ और न ही भारत में. लेकिन कई महिलाओं ने सालों पहले के अपने शोषण को अलग ढंग से देखना और उसे सामने लाना शुरू किया. ज्यादातर महिलाओं ने अपनी जो दर्द भरी दास्तान बताई है, उसमें काफी समानता है.
 
यौन उत्पीड़न एक ऐसा अपराध है जिसमें कसूरवार से अधिक पीड़ित की ही लानत-मलामत की जाती है. हम सबूत से क्या समझते हैं, इसे भी पितृसत्तात्मक समाज ने ही गढ़ा है. यौन उत्पीड़न के मामलों में सबूत क्या होता है जब पीड़िता अपने उत्पीड़न का भूलाने की कोशिश पूरी जिंदगी करती रहती हैं? उस स्थिति में साक्ष्य क्या रहेगा जब कसूरवार पीड़ित का मुंह बंद कराने का काम धमकी देकर करते हैं?
 
सवाल उठता है कि हम इन महिलाओं पर कैसे यकीन करें? कैसे मानें कि वे सच बोल रही हैं? 36 साल पुराने बलात्कार के मामलों का सबूत कहां है?
 
विश्वास की श्रेणी न्यायिक तार्किकता के लिए नई नहीं है. अंतर यह है कि महिलाओं की बातों पर यकीन करना पितृसत्तात्मक ज्ञान पर निर्भर करता है. पुरुषों का बेखौफ होना न्यायिक तंत्र तक पहुंचता है. न्यायिक निर्णयों में महिलाओं की सहमति को अक्सर खास महत्व नहीं दिया गया. इन मामलों में जजों की राय पूरी तरह से इस बात पर निर्भर करती है कि वे संबंधित महिला के चरित्र और यौन पृष्ठभूमि के बारे में क्या राय बनाते हैं.
 
हालिया अभियानों का सबसे महत्वपूर्ण हासिल यह है कि यह बात अब समझ आ गई है कि ज्ञान खुद में पितृसत्तात्मक सोच ने निर्मित की है. एक खास तरह की भाषा उभरने लगी है. अपने साझा अनुभवों से महिलाओं कए तरह का ज्ञान गढ़ रही हैं. वे बता रही हैं कि वे बुरी स्थिति में हैं और इस वजह से उनके जीवन की सच्चाइयां अलग हैं.
 
मीटू अभियान के तहत भारत के अकादमिक जगत पर भी सवाल उठे. यह भी बात आई कि पीड़ित को किस तरह की न्यायिक प्रक्रिया से गुजरना होगा. पाटेकर ने दत्ता के खिलाफ मानहानी का मुकदमा दर्ज कराया. वहीं कवानौग जज बन गए. बाकी जिन लोगों पर भी आरोप लगे, सब अपनी सामान्य जिंदगी में लौट गए. हमें नहीं पता कि आवाज उठाने का मतलब क्या है.
लेकिन फिर भी महिलाएं बोल रही हैं. इससे न सिर्फ वे अपनी शक्ति फिर से हासिल कर रही हैं बल्कि ज्ञान भी.
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