नोटबंदी की विफलता का उद्घाटन
लौटकर आए निर्दिष्ट बैंक नोटों पर रिज़र्व बैंक के हालिया आंकड़े नोटबंदी की प्रभावशीलता की असलियत सामने लाते हैं.
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भारतीय रिज़र्व बैंक की 2017-18 की वार्षिक रपट में ये बताया गया है कि 99.3 फीसदी निर्दिष्ट बैंक नोट प्रचलन में से लौटकर आ चुके हैं और इसी के साथ मौजूदा सरकार के उस भव्य प्रचार का अंत हो गया है जिसमें वो कह रही थी कि नोटबंदी काले धन को रोकने में सफल रही है. ये पहली बार नहीं है जब रिज़र्व बैंक ने लौटकर आए निर्दिष्ट बैंक नोटों पर आंकड़े जारी किए हैं. इससे पहले दिसंबर 2016 में जब ये जाहिर किया गया था कि कुल 15.43 लाख करोड़ रुपये मूल्य के बंद किए गए नोटों में से 12.44 लाख करोड़ बैंकिंग ढांचे में लौटकर आ चुके हैं तब सरकार ने इन आंकड़ों का खंडन करते हुए इन्हें बढ़ा हुआ बताया था. संभवतः इसलिए क्योंकि ये आंकड़े सरकार के खुद के उस पूर्वानुमान को चुनौती दे रहे थे जिसमें कहा गया था कि हमारी अर्थव्यवस्था में 3-5 लाख करोड़ रुपये का काला धन है जो लौटकर नहीं आ सकता.
अब रिज़र्व बैंक अपनी व्यवस्था की दक्षता को लेकर शर्मिंदगी वाली स्थिति में है. अभी एक साल पहले ही उसने अपनी सालाना रिपोर्ट में खुलासा किया था कि "30 जून 2017 तक प्राप्त किए गए निर्दिष्ट बैंक नोट अनुमानतः 15.28 लाख करोड़ रुपये मूल्य के हैं." अब सरकार और जनता को खुश करने के लिए बैंक दावा कर रहा है कि "इन निर्दिष्ट बैंक नोटों को गिनने की प्रक्रिया और सत्यापन का भारी भरकम काम सफलतापूर्वक पूरा कर लिया गया है" और वो भी करीब दो साल लगाने के बाद. और फिर से लौटकर आए इन नोटों के आंकड़ों में कितना सुधार है? महज 0.2 फीसदी. एक साल पहले के अनुमानित 15.28 लाख करोड़ रुपयों के मुकाबले अब 15.31 लाख करोड़ रुपये. और ऊंची दर वाले कितने करेंसी नोट आखिरकार नहीं आ सके हैं? लौटकर आए निर्दिष्ट नोटों का सिर्फ 0.11 लाख करोड़ यानी 0.7 फीसदी.
ये सरकार इस मामले में बुरी तरह घुटनों पर आ गई है लेकिन फिर भी इतनी भारी शर्मिंदगी झेलने की उसमें कोई लज्जा नहीं है. इस बीच रिज़र्व बैंक की घबराहट एक ज्यादा बड़े मसले की वजह से है. नोटबंदी की ये पूरी क्रिया बेहद अलोकतांत्रिक तरीके से की गई थी जिसमें संस्थानों की परिपक्व तजवीज़ों का निरादर किया गया. रिज़र्व बैंक के पूर्व गर्वनर रघुराम राजन ने सार्वजनिक रूप से कहा है कि उन्होंने एक साल पहले इस तरह के कदम पर अपना विरोध जाहिर किया था. समान रूप से ऐसा ही विरोध सभी पूर्व गर्वनरों ने भी किया था. इसके साथ ही रिज़र्व बैंक के रिकॉर्ड ऐसी विश्लेषण युक्त जानकारियों से भरे पड़े हैं जो दिखाते हैं कि जो रईस परिवार हैं वो अपनी 90 फीसदी से ज्यादा संपत्ति भौतिक रूप में रखते हैं. ऐतिहासिक रूप से भी सरकार के ऊंची मुद्रा वाले नोटों को बंद करने के सरकारी दबाव का ये केंद्रीय बैंक इसी कारण से विरोध करता रहा है. लेकिन अब इस बैंक के दृष्टिकोण मौजूदा सरकार की इच्छाओं से प्रभावित हो रहे हैं जो किसी भी तरह के ऐसे विश्लेषण से घृणा करती है जिसमें ज्यादा बौद्धिक गहराई हो.
नोटबंदी की क्रियाएं जो बहुत पहले रही हैं उनमें ऊंची मुद्रा वाले नोटों को लक्ष्य किया गया तब वे प्रचलन में मौजूद कुल करेंसी का सिर्फ 0.6 फीसदी थे. मौजूदा मामले में जब 86फीसदी से ज्यादा करेंसी को बंद कर दिया गया है तो उसके पीछे ज़रूर परिवारों की मुद्राधारण प्रवृत्तियों और देश के आर्थिक ढांचे जैसे मसलों पर ठोस बौद्धिक अभ्यास किए गए होंगे. 2017 में जब "प्रचलन में मौजूद मुद्रा" नोटबंदी की वजह से 20 फीसदी जानबूझकर गिराई गई तो उससे मुद्रा-सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) अनुपात पिछले साल के 12.2फीसदी के मुकाबले गिरकर 8.8 फीसदी पर आ गया. इस पर रिज़र्व बैंक ने ढिंढोरा पीट दिया कि "इस स्तर पर भारत का मुद्रा से जीडीपी अनुपात कई आधुनिक और उभरती हुई बाजार अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले में अच्छा है." जबकि इसके उलट अनुभवसिद्ध सबूत ये सामने लाए कि देश की मुद्रा प्रवृत्ति, उभरते और आधुनिक दोनों ही बाजारों से ज्यादा तभी है जब भारतीय अर्थव्यवस्था में असंगठित उद्यमों और अनौपचारिक क्षेत्र के घरों की प्रधानता है.
छठी आर्थिक जनगणना (2013) के मुताबिक 454 लाख गैर-कृषि प्रतिष्ठानों में से 92 फीसदी तो निजी असंगठित स्वामित्व व साझेदारी, और अन्य लघु निजी इकाइयों से ताल्लुक रखते हैं. ठीक इसी तरह कुल श्रमशक्ति में 92फीसदी से ज्यादा लोग अनौपचारिक श्रेणी से ताल्लुक रखते हैं. अब इस तरह के वातावरण में भी और "लेस-कैश सोसायटी" (कम नकदी वाले समाज) में परिवर्तित होने के इस दबाव तले भी साल 2017-18 में "प्रचलन में मुद्रा" 37फीसदी तक बढ़ गई है और मुद्रा से जीडीपी अनुपात 2016-17 के 8.8 फीसदी से बढ़कर 2017-18 में 10.9 फीसदी हो गया है. ये लचीलापन शायद भारत की अर्थव्यवस्था के ढांचे में अंतर्निहित है. इस बीच रिज़र्व बैंक अपने बदले हुए आसन को एक नए परिदृश्य की तरह दिखाने की कोशिश कर रहा है. कि वो भारत की वापसी उन "साथी उभरती हुई बाजार अर्थव्यवस्थाओं और आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं के बीच कर लाया है जिनके यहां मुद्रा उपयोग के स्तर सबसे ऊंचे हैं."
देश के आर्थिक ढांचे और घरेलू व्यवहार के समीकरणों की ज़रा कद्र अगर की गई होती तो अधिकारियों को अहसास हो जाता कि इस तरह की ग़ैर-जिम्मेदाराना क्रिया कितनी अधिक गहराई से नुकसान कर सकती है. इस मामले में मीडिया और बुद्धिजीवियों द्वारा प्रसंगों के रखे गए साक्ष्य हैं कि उत्पादन, नौकरियों और आय में क्षति की वजह से आम जनता को व्यापक तौर पर कितनी भारी पीड़ा का सामना करना पड़ा है. लेकिन इनके अलावा नोटबंदी के असली असर के कोई व्यवस्थागत आंकड़े नहीं हैं. इसका एक मुमकिन कारण तो ये हो सकता है कि देश का सांख्यिकीय तंत्र नियमित तौर पर हमारी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के आंकड़े नहीं जुटाता है. अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में जीडीपी का अनुमान लगाने के लिए औपचारिक अर्थव्यवस्था के संकेतकों का इस्तेमाल किया जाता है. मसलन, जब 2017-18 की पहली तिमाही में मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की (-)1.8 फीसदी विकास दर के उलट2018-19 में 13.5 फीसदी की दर उभारी जाती है तो ये कहा जाता है कि अर्ध-कॉरपोरेट और असंगठित क्षेत्र की जीडीपी "का अनुमान मैन्युफैक्चरिंग के औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) का इस्तेमाल करते हुए लगाया गया है." यही वजह है कि अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में विकास के संकेतक के तौर पर जीडीपी विकास को लहराना गलत है.
जब काले धन को कब्जे में लेने के उद्देश्य प्राप्त नहीं किए जा सके तो ऐसा लगता है कि कितने विचित्र ढंग से अब नोटबंदी का उद्देश्य बदलकर आतंकवाद व नक्सलवाद को नियंत्रित करने, सिर्फ नाममात्र की (शैल) कंपनियों को बंद करने, कर आधार को चौड़ा करने और डिजिटल भुगतानों को बढ़ाने के ऊपर स्थानांतरित कर दिया गया है. ये सब कुछ इस पूरे मुल्क पर और खासकर गरीब परिवारों पर भारी कष्ट ढाए बगैर भी हासिल किया जा सकता था.