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अत्याचारों की अधिकता

दलितों के खिलाफ जो लोग अत्याचार कर रहे हैं वे इसे सार्वजनिक तौर पर सही भी ठहरा रहे हैं 

 
 

The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

10 जून को सोशल मीडिया में दो दलित लड़कों को पीटने और नंगा परेड कराने का वीडियो वायरल हुआ. यह घटना महाराष्ट्र के जलगांव जिले की है. इन लड़कों के खिलाफ अत्याचार इसलिए हुआ क्योंकि वे एक ऐसे कुएं में तैर रहे थे जो महाराष्ट्र के गैरअधिसूचित जनजाति वर्ग के एक व्यक्ति का है. यह घटना 2016 के गुजरात के उना जिले में दलितों के खिलाफ अत्याचारों से मिलती-जुलती है. दोनों मामलों में दलितों के खिलाफ की गई हिंसा की वीडियो बनाकर उसे सोशल मीडिया पर भी डाला गया. इसका मतलब साफ है कि हिंसा करने वालों को किसी बात का डर नहीं है. जलगांव का मामला इसलिए अलग है क्योंकि ये कसूरवार हिंदू जाति व्यवस्था से नहीं जुड़े हुए हैं.

 

उम्मीद के मुताबिक महाराष्ट्र सरकार ने इस हिंसा में जाति का कोण नहीं देखा. हालांकि, पुलिस ने एससी एसटी कानून, 1989 के तहत मामला दर्ज किया. महाराष्ट्र सरकार ने इस मामले से जाति के कोण को बाहर करने के लिए दो काम किए. पहला काम तो यह कि सरकार के प्रमुख लोगों और स्थानीय पत्रकारों ने इसे मानसिक तौर पर विक्षिप्त लोगों का कृत्य बताना शुरू किया. इससे यह होता है कि इन अपराधों की पृष्ठभूमि पर बात नहीं होती. यह सही है कि कसूरवार जाति व्यवस्था में उच्च स्तर से नहीं है लेकिन इन लोगों को यह लगता है कि दलितों के खिलाफ कुछ भी करने से कुछ नहीं होता. जिस तरह से आरोपी ने दलित लड़कों को पीटा उससे भी यह लगता है.

 

दूसरी रणनीति सरकार की यह रही कि वह खुद को आलोचनाओं से बचाए. जब भी उना और जलगांव जैसी घटना होती है तो राज्य सरकार पहले से स्थापित रास्तों पर चलने लगती है. इसमें पहला यह है कि यह प्रोपगैंडा चलाया जाए कि सरकार सामाजिक न्याय और दलितों की तरक्की के लिए काफी कुछ कर रही है. महाराष्ट्र की भारतीय जनता पार्टी और शिव सेना की सरकार ने यही शिष्टाचार दिखाई. एक टीवी चैनल पर सामाजिक न्याय मंत्रालय ने दलितों के लिए किए जा रहे कार्यों का बखान किया. जिन लोगों के नुकसान को ठीक करने के काम में लगाया गया वे दलित समाज से ही थे.

 

जो बात सरकार और सरकारी अधिकारी नहीं समझ रहे हैं, वो यह कि दलितों के खिलाफ सवर्ण जातियों का गुस्सा बढ़ गया है. यह सिर्फ दलितों के लिए किए जा रहे कामों के बखान से खत्म नहीं होगा. बल्कि इससे तो दलितों के खिलाफ गुस्सा और बढ़ रहा है. अगड़ी जातियों के लोग सरकार के समानांतर अपनी सत्ता चला रहे हैं.

 

कानून का राज नहीं होने से इन अपराधों के शिकारों को न्याय पाने की उम्मीद सरकार और स्थानीय स्तर पर सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं के सहयोग पर ही निर्भर है. सामाजिक कार्यकर्ता इन्हें और इनके परिवारों को न्याय व्यवस्था के जरिए न्याय की गुहार के काम में मदद करते हैं.

 

सामाजिक सजगता के अभाव और अगड़ी जातियों के सामाजिक आतंक की वजह से इन घटनाओं को जातिगत हिंसा की घटना के बजाए सामान्य हिंसा की घटना की तरह देखा जा रहा है. मौन द्वेष की मौजूदगी की वजह से दलितों के लिए अपने संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल कर पाना भी मुश्किल हो गया है. इन अधिकारों का लाभ किसी को तब ही मिल सकता है जब वे इनका इस्तेमाल कर सके. इस मामले में वीडियो सामने आ जाने से आरोपियों की गिरफ्तारी हो गई है. लेकिन हमें कानून की राज की रक्षा करने की जरूरत है. जरूरत इस बात की भी है कि सरकार भी मूक दर्शक नहीं बनी रहे.

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