विश्वविद्यालय बना अखाड़ा
भारतीय विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्र हमें यह याद दिला रहे हैं कि लोकतंत्र का मतलब असहमति होता है
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लोकतंत्र की रखवाली के मामले में हमारे विश्वविद्यालय अखाड़े बन गए हैं। जो लोग यह मानते हैं कि विश्वविद्यालय छात्रों के बीच न सिर्फ विभिन्न विचारों के उगने को प्रोत्साहन देते हैं बल्कि इन्हें आपस मंे टकराने की जगह भी देते हैं, उनकी न सिर्फ आलोचना हो रही है बल्कि उन्हें कुचलने की कोशिश भी की जा रही है। हाल ही में ऐसा दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस काॅलेज में हुआ। यहां ‘विरोधी की संस्कृति’ विषय पर एक सेमिनार का आयोजन हो रहा था। इसमें छात्र नेता और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे उमर खालिद को बतौर वक्ता बुलाया गया था। इसी बात को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने इस सेमिनार को बाधित करने की कोशिश की। काॅलेज के जिन छात्रों और अध्यापकों ने विद्यार्थी परिषद की इस कोशिश का विरोध किया, उन पर इस छात्र संगठन के गुंडों ने पत्थरों और बोतलों ने हमले कर दिए। पत्रकारों पर भी हमले किए गए। वहां पुलिस खड़ी तमाशा देखती रही। पुलिस ने न सिर्फ विद्यार्थी परिषद के गुंडों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से इनकार कर दिया बल्कि जो लोग पुलिस के इस रवैये के विरोध के लिए मौरिस नगर थाने पर जमा हुए थे, उन पर लाठीचार्ज कर दिया।
यह घटना उसी योजना का हिस्सा है जिसके तहत मौजूदा सत्ताधीशों के विरोध में उठने वाली हर आवाज को शांत करने का काम किया जा रहा है। यह संघ परिवार के दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा है। जिसके तहत संघ उच्च शिक्षा के संस्थानों पर कब्जा जमाना चाहता है। वह भी बहस और ज्ञान के बूते नहीं बल्कि हिंसा और सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग के बल पर। इसी तरह की एक और घटना इसी साल की शुरुआत मंे हुई थी. जेएनयू तुलनात्मक गवर्नेंस और राजनीतिक सिद्धांत पढ़ाने वाली निवेदिता मेनन पर जोधपुर के जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय ने इस बात को लेकर पुलिस शिकायत दर्ज करा दी कि उन्होंने कथित तौर पर अपने भाषण में कश्मीर को लेकर गलत बयान दिया है। इसके बाद विद्यार्थी परिषद ने विरोध शुरू कर दिया और मेनन के बयान को राष्ट्रदोही करार दिया। नतीजा यह हुआ कि उस कार्यक्रम को आयोजित करने वाली व्यास विश्वविद्यालय में अंग्रेजी की सहायक प्राध्यापक राजश्री राणावत को निलंबित कर दिया गया। 2016 के सितंबर में भी इसी तरह से हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय के दो शिक्षकों स्नेहष्ट मानव और मनोज कुमार को निलंबित करने और कठोर सजा देने की मांग की जा रही थी। इन दोनों ने महाश्वेता देवी की लघु कथा द्रौपदी पर आधारित एक नाटक का मंचन कराया था। विद्यार्थी परिषद ने इस नाटक को यह कहते हुए ‘देशद्रोही’ करार दिया कि इसमें भारतीय सेना का गलत चित्रण किया गया है। जबकि महाश्वेती देवी के नहीं रहने के बावजूद भी उनकी पूरे देश में उनके इन कामों के लिए इज्जत की जाती है।
इन विश्वविद्यालयों में वही सब हो रहा है जो साल भर पहले हैदराबाद विश्वविद्यालय और जेएनयू में हुआ था। जेएनयू में असल विवाद तो 9 फरवरी, 2016 को हुआ। जब कुछ छात्र अफजल गुरू की फांसी की बरसी पर प्रदर्शन कर रहे थे। लेकिन इसके पहले अगस्त, 2015 में दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल काॅलेज में एक डाॅक्यूमेंट्री ‘मुजफ्फरनगर बाकी है’ के प्रदर्शन को लेकर तथाकथित ‘देशभक्त’ और ‘देशद्रोही’ आमने-सामने आ गए थे। उस वक्त डाॅक्यूमेंट्री का विरोध अधार्मिक कहकर किया गया था।
ये सारी घटनाएं अलग-अलग और एक साथ यह बताती हैं कि कैसे नरेंद्र मोदी सरकार ने मई, 2014 में सत्ता में आने के बाद से उच्च शिक्षण संस्थानों को एक ही विचारधारा के कब्जे में लेने की कोशिश की है। इसके लिए अलग-अलग तरीके अपनाए गए हैं। संघ के पसंद वाले लोगों को फिल्म सेंसर बोर्ड, फिल्म ऐंड टेलीविजन संस्थान और भारतीय इतिहास शोध परिषद का प्रमुख बनाया गया। वहीं हैदराबाद विश्वविद्यालय और जेएनयू में ऐसे कुलपति लाए गए जो विद्यार्थी परिषद को अपने हिसाब से काम करने से नहीं रोक पाएं। जानबूझकर इन संस्थानें में बौद्धिक बहस की संस्कृति को कुचलकर असहमति के हर स्वर को कुचलने का माहौल पैदा किया गया। इससे अलग राह पर चलने वाले शिक्षकों और छात्रों को लगातार धमकियां मिल रही हैं। सरकार और उसके मंत्री अक्सर ‘राष्ट्र विरोधी’ का जुमला उछालते रहते हैं। इससे सत्ताधारी पार्टी के छात्र संगठन को कुछ भी करने का हौसला मिलता रहता है। संदेश साफ हैः अगर आप सत्ताधारी दल के खिलाफ हैं तो राष्ट्रद्रोही हैं। हिंसा की इस संस्कृति की वजह से स्वतंत्र सोच की संभावनाएं सिकुड़ती जा रही हैं।
हालांकि, हिंसा और उकसावे के इस काम पर संघ और भाजपा का एकाधिकार नहीं है। बल्कि दूसरे छात्र संगठन भी इन कामों में लगे हैं। विद्यार्थी परिषद जहां दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा और आंध्र प्रदेश में गड़बड़ियां कर रही है तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्र संगठन ने विश्वविद्यालय में होने वाले छात्र नेताओं की एक बैठक को रद्द कर दिया। इसमें जेएनयू की छात्र नेता शेहला रसीद को आना था। छात्र संगठन का आरोप था कि शेहला ने एक फेसबुक पोस्ट में पैगंबर मुहम्मद का अपमान किया है। ये घटनाएं यह बता रही हैं कि विश्वविद्यालय जिन मूल विचारों पर खड़े होते हैं, वे विचार ही खतरे में हैं। विश्वविद्यालयों को ऐसी जगह माना जाता है जहां विभिन्न विचारों पर चर्चा होती है, नए विचार उभरते हैं और जाने हुए व स्वीकार्य चीजों को चुनौती दी जाती है। जब सरकार, सरकारी एजेंसियां और भीड़ इस चीज को खत्म करने की कोशिश कर रहे हों तो हमें उन लोगों के साथ खड़ा होना पड़ेगा जो लोकतंत्र की मूल बात लोकतांत्रिक असहमति की रक्षा की कोशिश कर रहे हैं।