अर्थव्यवस्था की हालत
2016-17 की आर्थिक समीक्षा से वे बातें नहीं निकल रहीं जो सामने आने चाहिए थीं
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हमारी समझदारी यह है कि उदार बौद्धिकों को बगैर किसी भय और पक्षपात को सही चीज बोलनी और लिखनी चाहिए। उनसे यह अपेक्षा भी की जाती है कि वे अपने आसपास की चीजों पर सवाल उठाएं। आम बजट के ठीक एक दिन पहले 31 जनवरी को आई आर्थिक समीक्षा को देखने से बहुत सारे लोगों को इस बात पर संदेह हो सकता है कि जिन अर्थशास्त्रियों और आर्थिक मामलों को देखने वाले अधिकारियों पर अर्थव्यवस्था का सही हाल बताने की जिम्मेदारी थी, क्या वे लोग वाकई उदार हैं। अगर उनकी स्थिति को सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो पता चलता है कि देश की राजनीति भी काफी बदल गई है। देश के दोनों प्रमुख दल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी उदार नहीं रही और न ही सरकारी अधिकारियों को उदार बने रहने की परवाह है।
इस साल की आर्थिक समीक्षा या यों कहें कि हाल के सालों की आर्थिक समीक्षाओं को लिखने वालों ने लिखते वक्त यह नहीं सोचा कि पिछले साल वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री ने पिछले साल बजट पेश करते क्या वादे किए थे। केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पिछले बजट को ‘किसान परस्त’ और ‘गरीब परस्त’ बताया था। वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि पांच साल में किसानों की आमदनी ‘दोगुनी’ करने का लक्ष्य है। जिन किसानों ने उनकी इस बात को गंभीरता से लिया था, उन्हें लग रहा था कि उनकी वास्तविक आमदनी दोगुनी हो जाएगी और इसमें महंगाई के प्रभाव का भी ध्यान रखा जाएगा. कहा जा सकता है कि सरकार में बैठे हुए उदारवादियों ने भी बजट की मार्केटिंग और पैकेजिंग में शामिल होने को ठीक समझा। लेकिन क्या यह सही नहीं होता कि वे लोगों को बताते कि पिछले साल सरकार ने जो वादे किए थे, उन पर बात कहां तक बढ़ी? या फिर जेटली और मोदी सिर्फ किसानों का मजाक उड़ा रहे थे? उन लोगों ने सोचा था कि सब्जियों और फलों के कारोबार में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाने से इन्हें उपजाने वाले किसानों को फायदा होगा। उन लोगों ने यह नहीं सोचा कि कृषि क्षेत्र में सरकारी निवेश में की जा रही कमी की स्थिति को बदलने से किसानी का असली भला होगा।
सच्चाई तो यह है कि इस साल की आर्थिक समीक्षा से कोई भी उदारवादी अर्थशास्त्री अर्थव्यवस्था की हालत को समझ नहीं पाएगा। समीक्षा की भूमिका में ही सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने लिखा है कि सही स्थिति पेश करने वाले आंकड़ों के लिए कुछ महीने और इंतजार करना पड़ेगा। समीक्षा यह दावा करती है कि आर्थिक स्थिरता बनी हुई है। यह दावा भी किया गया है कि 2016-17 में विकास दर में जो कमी आई है, वह अस्थाई है और 2017-18 में विकास दर में तेजी आएगी। समीक्षा के मुताबिक नोटबंदी का लाभ मिल सकता है बशर्ते कर प्रशासन में लगे अधिकारी ठीक से काम करें। आर्थिक समीक्षा सरकार की इस बात के लिए तारीफ करती है कि उसने जीडीपी के 3.5 फीसदी पर वित्तीय घाटे को रखने को लक्ष्य को हासिल किया है। समीक्षा में यह भी कहा गया है कि नोटबंदी की वजह से जीडीपी और आर्थिक गतिविधियों पर असर पड़ा है लेकिन यह प्रभाव अस्थाई है और इससे जीडीपी का 0.25 से 0.50 फीसदी तक ही नुकसान हो सकता है।
2017-18 के बारे में अपनी संभावनाओं के लिए आर्थिक समीक्षा ने अंतराष्ट्रीय मौद्रिक कोष के आंकड़ों को आधार बनाया है। इसमें कहा गया है कि 2016 के 3.1 फीसदी के मुकाबले 2017 में 3.4 फीसदी वैश्विक विकास दर की उम्मीद है। आर्थिक समीक्षा कहती है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था सुधरने की वजह से भारत का निर्यात बढ़ सकता है और इससे जीडीपी में एक फीसदी तेजी आ सकती है। यह उम्मीद भी की जा रही है कि उपभोक्ता वस्तुओं और रियल एस्टेट में मांग बढ़ सकती है। हालांकि, निजी निवेश में 2016-17 के मुकाबले बहुत सुधार की उम्मीद नहीं है। इसके बावजूद आर्थिक समीक्षा में 2017-18 के लिए 6.75 फीसदी से 7.5 फीसदी जीडीपी विकास दर का अनुमान लगाया गया है। नगदी और जीडीपी अनुपात के निम्न स्तर पर रहने के अनुमान के वजह से ब्याज दर 2016-17 के मुकाबले 2017-18 में कम रहने की उम्मीद है।
बड़े मीडिया समूह और अर्थशास्त्री इस कोशिश में रहते हैं कि एक खास तरह की आर्थिक विचारधारा का ही प्रसार हो। इस तरह के अर्थशास्त्री हमेशा विदेशी कर्जों, कर्ज लेने की देश की क्षमता में कमी, बैलेंस आॅफ पेमेंट, बढ़ती ब्याज दरों, निजी निवेश में कमी और महंगाई जैसी समस्याओं के बारे में गोल-गोल बातें करते हैं।
यहां तक की कींस के उपयोगी विचारों को भी भुला दिया गया है। उदाहरण के तौर पर जब लंबी अवधि में मुनाफे को लेकर नकारात्मक उम्मीदे हैं तो कर्ज देने और लेने वालों को अधिक जोखिम का अंदाज होना चाहिए। दीर्घावधि वाले पूंजीगत संपत्तियों को भी ऐसा बनाया जा रहा है कि उनकी मार्केटिंग आसानी से की जा सके। ऐसे में निवेशक कम अवधि में मुनाफा कमाने या नुकसान उठाने की सोच के साथ चल रहे हैं।
ऐसे में बिचैलिये अधिक मुनाफा बना रहे हैं। 1990 के दशक से जिस तरह का उदारीकरण चल रहा है उसमें भारत उन देशों की सूची में आ गया है जहां सबसे अधिक आर्थिक असमानता है। देश के दस फीसदी लोगों के पास देश की 70 फीसदी या इससे अधिक संपत्ति है। लेकिन आर्थिक समीक्षा में इस तथ्य को बताना जरूरी नहीं समझा गया है। इससे यह बात भी पता चलती है कि जिस तरह से अमीर लोग देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र को प्रभावित कर रहे हैं, उसमें लोकतंत्र सिर्फ कहने की बात रह गई है।
संभवतः यही वजह है कि उदार समझे जाने वाले अरविंद सुब्रमण्यम ने आर्थिक समीक्षा का नौवां अध्याय यूनिवर्सल बेसिक इनकम पर लिखा है। जिसके शीर्षक को महात्मा गांधी से जोड़ा गया है। वे इस अध्याय की शुरुआत तो बगैर किसी शर्त के सबको एक निश्चित आमदनी सुनिश्चित करने वाली योजना से करते हैं लेकिन अंत तक आते-आते इसे सशर्त और एक खास वर्ग की योजना की संभावनाओं पर लाकर छोड़ देते हैं। वह भी मौजूदा कल्याणकारी योजनाओं की कीमत पर। यह हमें चीन की उस स्थिति की याद दिलाता है जो वहां 1978 के बाद पैदा हुई थी। चीन ने उस वक्त पूंजीवाद को ओर छलांग लगाई थी। किसानों की आमदनी बढ़ गई थी। लेकिन उन्हें खाने-पीने और चिकित्सा के लिए जो सब्सिडी मिल रही थी, वह खत्म हो गई थी। जिस तरह की नगदी हस्तांतरण का सुझाव सुब्रमण्यम दे रहे हैं, उसके बारे में यही कहा जा सकता है कि समय के साथ उस रकम की क्रय शक्ति कम हो सकती है। क्योंकि जिस वर्ग के लिए यह योजना बनाई जा रही है उसके प्रति न तो अमीरों के मन में और न ही राजनीतिक वर्ग के मन में कोई सहानुभूति है। अगर दूसरी कल्याणकारी योजनाएं जैसे रोजगार गारंटी योजना या जन वितरण प्रणाली जैसी योजनाओं में संशोधन किया जाए या फिर इन्हें बंद भी कर दिया जाए तो भी हमें सुब्रमण्यम के उस दावे पर यकीन नहीं होता जिसमें वे कहते हैं कि इस प्रस्तावित योजना का लक्ष्य हर आंख से आंसू पोंछने का है। क्योंकि इस योजना की लागू होने की संभावना को देखते ही पूंजीवादी वर्ग और उसकी विचारधारा का समर्थन करने वाले लोग बहुत अधिक सरकारी खर्च का शोर मचाने लगेंगे। अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने बिल्कुल सही सुझाव दिया है कि अगर कभी इस योजना पर सहमति बनती है तो इसकी योजना मौजूदा ढांचे को विस्तार देने की सोच के साथ बननी चाहिए न कि वैकल्पिक ढांचे के तौर पर।