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बगैर दम के दावे

बजट गरीबपरस्त होने के दावे तो करता है लेकिन इसमें वैसा कुछ दिखता नहीं है।
 

The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

केंद्रीय वित्त मत्री अरुण जेटली ने नरेंद्र मोदी सरकार का जो चैथा बजट पेश किया उसके बारे में हर तरफ यही सुनने को मिल रहा है कि लोकलुभावन उपायों को दरकिनार करके इसमें वित्तीय दूरदर्शिता दिखाई गई है। बजट को गरीबपरस्त बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि इससे किसानों को फायदा होगा। यह भी दावा किया जा रहा है प्रगतिशील कर ढांचे से काले धन की समस्या में सुधार होगा। हालांकि, बजट से इस बात की उम्मीदें कम हैं कि वंचितों की स्थिति सुधरेगी, असमानता घटेगी, रोजगार बढ़ेंगे, बुरे कर्ज कम होंगे और सामाजिक कल्याण की योजनाओं का क्रियान्वयन ठीक होगा। 

बजट दस्तावेजों को ध्यान से देखने से पता चलता है कि बजट को लेकर जो दावे किए जा रहे हैं, वे हवा-हवाई हैं और उनमें कोई खास दम नहीं है। ये एक ऐसी कोशिश के तौर पर दिखते हैं जिनके जरिए नोटबंदी से चोट खाए आम लोगों के दुख-दर्द को कम किया जा सके।
जेटली के बजट भाषण में कई बार राष्ट्रपिता का जिक्र आया। महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना के आवंटन को उन्होंने अब तक का सबसे अधिक बताया। जबकि वास्तविकता यह है कि आवंटन सिर्फ एक फीसदी बढ़ाया गया है। जेटली ने खुद बताया कि संशोधित अनुमानों में इस योजना पर खर्चे का अनुमान 47,500 करोड़ रुपये का है। इस योजना के लिए 2017-18 का बजट अनुमान 48,000 करोड़ रुपये का है। वित्त मंत्री ने इस योजना के जरिए टिकाउ संपत्तियों के निर्माण की बात भी कही। यह वही योजना है कि जिसे नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस की नाकामियों का ‘जीता-जागता धरोहर’ कहा था। अब उनकी सरकार खुद इस योजना की तारीफें कर रही है। रोजगार गारंटी योजना के तहत रोजगार मांगने में आई तेजी की प्राथमिक वजह यह है कि नोटबंदी की वजह से बहुत सारे लोग शहरी इलाकों से गांवों में जाने को मजबूर हुए। जबकि रोजगार गारंटी योजना का एक लक्ष्य यह था कि यह गांवों में शहरों में हो रहे पलायन को रोके। लेकिन नोटबंदी ने स्थिति को उलटा कर दिया। इस स्थिति को देखते हुए इस योजना का आवंटन और अधिक होना चाहिए था। 
शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़ी योजनाओं में न के बराबर बढ़ोतरी की गई है। यही स्थिति अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और महिलाओं से जुड़ी योजनाओं की है। सेंटर फाॅर बजट ऐंड गवर्नेंस अकाउंटिबलिटी ने अपने एक विश्लेषण में यह बताया है कि केंद्रीय करों में राज्यों को अधिक हिस्सेदारी देने के बावजूद उन्हें मिलने वाले संसाधनों में बढ़ोतरी नहीं हुई है। यह चिंताजनक है। क्योंकि यह लगातार कहा जा रहा है कि सामाजिक कल्याण से जुड़ी योजनाओं में राज्यों को अधिक जिम्मेदार बनना चाहिए। केंद्र सरकार उपकरों जैसे स्वच्छ भारत सेस और कृषि कल्याण सेस के जरिए भी पैसे जुटा रही है। इससे आने वाला पैसा राज्यों के बीच नहीं बंट रहा।

राजस्व संग्रह से जुड़े जो आंकड़े बजट में रखे गए हैं उन पर कई तरह के सवाल खड़े होते हैं। बजट पेश करने के वक्त को एक महीना आगे करने से सही संशोधित अनुमानों और बजट अनुमानों के लिए जरूरी आंकड़े समय पर नहीं मिल पा रहे हैं। इससे भले ही भारतीय जनता पार्टी को राजनीतिक फायदा हो और वह नोटबंदी के दुष्प्रभावों को कम करने की कोशिश करे लेकिन कई दूसरी समस्याएं पैदा हो सकती हैं। सरकार दावा कर रही है कि अगले वित्त वर्ष में वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी लागू हो जाएगा। इसके बावजूद यह साफ नहीं है कि इससे केंद्र सरकार और विभिन्न राज्य सरकारों के अप्रत्यक्ष कर संग्रहण पर क्या प्रभाव पड़ेगा।

आर्थिक समीक्षा में यह बात कही गई है कि विनिवेश पर राजनीतिक सहमति बनाना आसान नहीं होगा। इसके बावजूद सरकार विनिवेश लक्ष्य लगातार बढ़ाते जा रही है। 2016-17 के संशोधित अनुमानों के मुकाबले 2017-18 के बजट अनुमानों में इसे 60 फीसदी अधिक कर दिया गया है।

सरकार को यह उम्मीद है कि निजी आयकर संग्रह में 25 फीसदी बढ़ोतरी होगी। ऐसा कैसे होगा, यह साफ नहीं है। जेटली खुद अपने बजट भाषण में कह चुके हैं कि हमारे देश में कर नियमों का पालन नहीं होता। तो क्या इस साल लोग ईमानदारी से कर चुकाने लगेंगे या फिर भाजपा के ही शब्दों में कहें तो फिर से ‘इंस्पेक्टर राज’ या ‘कर आतंकवाद’ की वापसी होगी। हालांकि, वित्त मंत्री का यह कहना सही है कि जो लोग कर नहीं चुका रहे हैं, उनकी गलती को बोझ ईमानदारी से कर चुकाने वाले लोगों पर पड़ रहा है।
वित्त मंत्री ने चुनाव आयोग के उस सुझाव को मान लिया है जिसमें यह कहा गया था कि किसी भी अनाम व्यक्ति द्वारा राजनीतिक चंदे की सीमा को 20,000 रुपये से घटाकर 2,000 रुपये कर दिया जाए। जेटली ने भारतीय रिजर्व बैंक कानून में संशोधन करके राजनीतिक दलों के लिए बाॅन्ड जारी करने की व्यवस्था बनाने की बात कही है और यह भी कहा है कि राजनीतिक दल निश्चिम समय अवधि में आयकर रिटर्न भरें। ये उपाय काॅस्मेटिक कहे जा सकते हैं। क्योंकि इनसे चुनावों में काले धन का इस्तेमाल बंद होने से रहा। सबसे पहली बात तो यही है कि राजनीतिक दल चुनावों में जिस खर्च का जिक्र करते हैं, वह उनके कुल खर्चों का बहुत छोटा अंश होता है। दूसरी बात का जिक्र चुनाव सुधरों के लिए काम करने वाली संस्था एसोसिएशन फाॅर डेमोक्रेटिक रिफाॅर्मस ने किया है। इसके मुताबिक कोई ऐसा प्रस्ताव नहीं है कि राजनीतिक दलों के आयकर रिटर्न की जांच कोई स्वतंत्र आॅडिटर करे और न ही इसमें कोई गड़बड़ी होने पर दंड लगाने का प्रावधान है। तीसरी समस्या यह है कि राजनीतिक दल आयकर रिटर्न समय से दाखिल नहीं करते। एडीआर के मुताबिक 2010-11 से 2014-15 के बीच भाजपा ने औसतन 182 दिनों की देरी से और कांग्रेस ने 166 दिनों की देरी से आयकर रिटर्न भरा। जेटली ने बजट के बाद अपनी प्रेस वार्ता में राजनीतिक दलों के बाॅन्ड में निवेश करने वालों की जानकारियां गोपनीय रखने के बारे में जो बातें कहीं, उनसे लगता नहीं है कि भारत में राजनीतिक चंदे की व्यवस्था हाल-फिलहाल पारदर्शी होने वाली है। 

अस्थिरता बढ़ने की आशंका इस वजह से भी है कि कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने की उम्मीद है। इससे महंगाई बढ़ने की आशंका है। आर्थिक समीक्षा में इस बात को लेकर सचेत किया गया है कि दूध, चीनी, आलू और प्याज की कीमतों में उसी तरह की तेजी देखी जा सकती है जिस तरह की तेजी दालों की कीमतों में 2015-16 में देखी गई थी। दूसरे शब्दों में कहें तो महंगाई दर के 4.25 फीसदी से 5 फीसदी के दायरे में रहने की उम्मीद अव्यावहारिक है। सच्चाई तो यह है कि अधिक महंगाई दर सरकार को अपने वित्तीय घाटे के लक्ष्य को पूरा करने में मदद करेगी, भले ही इससे गरीबों पर बुरा प्रभाव पड़े। वैश्विक अर्थव्यस्था की अस्थिरता और पश्चिमी देशों में बढ़ता संरक्षणवाद भी भारत के लिए अच्छा नहीं है।

बजट में इस बात का स्पष्ट तौर पर उल्लेख नहीं किया गया है कि आर्थिक विकास दर कम हो रही है और विस्तारवादी आर्थिक नीतियों की जरूरत है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि गरीबपरस्त और अमीर विरोधी होने के दावों के बीच यह बजट ऐसा नहीं है जिससे गैरबराबरी घटे और देश के वंचित लोगों के जीवन स्तर में कोई बड़ा बदलाव आ सके।

Updated On : 13th Nov, 2017
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