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फिर से चार पक्षीय वार्ता

‘नियम आधारित व्यवस्था’ के नाम पर एशिया-प्रशांत क्षेत्र में आॅस्ट्रेलिया, भारत और जापान अमेरिकी दबदबे का समर्थन कर रहे हैं

 
 

The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

नवंबर के मध्य में मनीला में आयोजित ईस्ट एशिया समिट के दौरान आॅस्ट्रेलिया, भारत, जापान और अमेरिका के अधिकारियों ने चार पक्षीय वार्ता की. इसके बाद इन चारों ने चीन का नाम लिए बगैर ‘नियम आधारित व्यवस्था’ बनाए रखने के नाम पर एशिया-प्रशांत क्षेत्र में उसे सीमित रखने के प्रति प्रतिबद्धता दिखाई. आॅस्ट्रेलियाई विदेश मंत्रालय के मुताबिक चारो देश इस क्षेत्र में समुद्री सुरक्षा देने और उत्तर कोरिया समेत अन्य किसी भी चुनौती का सामना करने को लेकर प्रतिबद्ध हैं.

 

दावा किया गया है कि यह नया गठजोड़ अंतराष्ट्रीय कानूनों के प्रति सम्मान विकसित करने और नियम आधारित व्यवस्था कायम करने के मकसद से बना है. हालांकि, अमेरिका ने इन चीजों के प्रति शायद ही कोई सम्मान दिखाया है. अमेरिका न तो अंतराष्ट्रीय क्रिमीनल कोर्ट को मानता है और न ही किसी देश में सैन्य दखल देने के लिए संयुक्त राष्ट्र की अनुमति लेता है. जिन लोगों को वह आतंकवादी मानता है, उन पर ड्रोन से हमले का एकतरफा फैसला भी अमेरिका ले लेता है. इस प्रक्रिया में कई आम नागरिक मारे जाते हैं. ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या भारत, आॅस्ट्रेलिया और जापान के नागरिकों को अपने सरकारों को अमेरिका जैसे हिंसक साम्राज्यवादी ताकत का दोयम दर्जे का सहयोगी बनने देना चाहिए.

 

इस चार पक्षीय गठजोड़ की शुरुआत 2007 में उस समय के अमेरिकी उपराष्ट्रपति डिक चेनी और जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे की पहल पर हुई थी. इसका समर्थन आॅस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री जाॅन हावर्ड और भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी किया था. सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत और अमेरिका अपने नौसैनिकों के जरिए मालाबार एक्सरसाइज हर साल आयोजित कर रहे हैं. 2007 में इसमें जापान को भी शामिल किया गया और इसे उस साल जापान में ही आयोजित किया गया. इसके बाद बंगाल की खाड़ी में मालाबार से आॅस्टेलिया और सिंगापुर भी जुड़े. साफ हो गया कि यह द्विपक्षीय सैन्य अभ्यास नहीं है. हालांकि, आॅस्ट्रेलिया ने 2008 में इस गठजोड़ से खुद को बाहर कर लिया. हालांकि, उसने अमेरिका से सैन्य संबंध बनाए रखे. 2015 से जापान मालाबार का स्थायी हिस्सेदार बना हुआ है. अब इस चार पक्षीय व्यवस्था के फिर से शुरू होने से यह माना जा रहा है कि आॅस्ट्रेलिया भी फिर से मालाबार का हिस्सा होगा.

 

भारत के प्रति ट्रंप प्रशासन के रुख को समझने के लिए अमेरिकी विदेश मंत्री रेक्स टिलरसन द्वारा अक्टूबर में दिए गए उस व्याख्यान को देखना होगा जिसका शीर्षक ही था कि अगली सदी के भारत और अमेरिका के रिश्ते कैसे होंगे. उसमें टिलरसन ने कहा था कि चीन को रोकने के लिए भारत, अमेरिका और जापान की तिकड़ी में आॅस्ट्रेलिया को जोड़ना होगा. इसके बाद भारत ने इसके लिए रजामंदी के संकेत दिए. भारत अब अमेरिका का प्रमुख रक्षा साझेदार है. इस वजह से अब वह अमेरिका से अत्याधुनिक सैन्य हथियार खरीद सकता है. भारत ने अमेरिका के साथ लाॅजिस्टिक में सहयोग के लिए भी एक समझौता किया है. इससे अमेरिकी सेना जरूरत पड़ने पर भारत के सैन्य बेस का इस्तेमाल कर सकती है.

 

ऐसे में यह सवाल उठता है कि चीन और अमेरिका के द्वंद में भारत खुद को क्यों बीच में डाल रहा है? चीन का सैन्य और भूराजनीतिक विकास उस गति से नहीं हुआ जिस गति से उसका आर्थिक विकास हुआ. अमेरिका अभी भी सबसे बड़ी शक्ति बना हुआ है. रक्षा बजट के मामले में कोई भी देश उसके आसपास नहीं है. न ही परमाणु क्षमता और पूरी दुनिया में सैन्य बेस के मामले में. लेकिन चीन के आर्थिक विकास और इस आधार पर उसकी बढ़ती महत्वकांक्षाओं ने अमेरिका को परेशान किया है. उसे लग रहा है कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में उसके एकाधिकार को चुनौती मिल सकती है. 

 

पूर्वी चीन सागर और दक्षिण चीन सागर विवाद में कोई भी पक्ष निर्दोष नहीं है. जिस तरह से चीन के दावे बेतुके हैं, उसी तरह से कई दूसरे पक्षों के दावे भी बेतुके हैं. इस मामले में सबसे अधिक हल्ला करने वाले अमेरिका ने खुद अब तक संयुक्त राष्ट्र के समुद्र संबंधी नियमों को मानने वाले समझौते को नहीं लागू किया. अब भी स्थिति यह है कि अमेरिकी नौसेना उन समुद्री रास्ते को रोक सकती है जो चीन की आर्थिक विकास के लिए बेहद अहम हैं. यहां समुद्र में वाणिज्यिक आवाजाही संकट में नहीं है. कोई भी यह नहीं मानेगा कि चीन वाणिज्यिक आवाजाही को पूर्वी चीन सागर और दक्षिण चीन सागर में बाधित करेगा. क्योंकि चीन कभी भी अपने हितों को आहत नहीं करेगा. सच्चाई तो यह है कि भारत, जापान और आॅस्ट्रेलिया जिस नियम आधारित व्यवस्था की बात कर रहे हैं, वह एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी साम्राज्यवादी प्रभुत्व पर आधारित है.

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