लेमन समाजवाद
बैंकों में पूंजी लगाने का सरकार का निर्णय जवाबों से अधिक सवाल खड़े करता है
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24 अक्टूबर को केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में 2.11 लाख करोड़ रुपये का पूंजी डालने की घोषणा की. इनमें से 1.35 लाख करोड़ रुपये बाॅन्ड जारी करके जुटाए जाएंगे. बाकी के 76,000 करोड़ रुपये बजट से और बाजार उधारी के जरिए आएंगे. बैंकों में गैर निष्पादित संपत्तियों यानी एनपीए की समस्य को देखते हुए इस सरकारी निर्णय का कुछ लोगों ने स्वागत किया. कई बैंकों की शेयरों की कीमतों में उछाल आया.
सरकार के इस निर्णय से दो चीजें जुड़ी हुई हैं. पहली बात तो यह कि बैंकों के कर्ज की गुणवत्ता बेहद खराब हुई है. रिजर्व बैंक ने अपने सालाना रिपोर्ट में बताया कि मार्च, 2017 के अंत तक बैंकों के कुल कर्ज का 12.1 फीसदी मुश्किल में है. इसमें एनपीए और पुनर्संगठित कर्ज दोनों शामिल हैं. सरकारी बैंकों को 2016-17 में भी नुकसान हुआ. बैंकों की यह बुरी स्थिति 2009 की वैश्विक आर्थिक संकट के समय से ही बनी हुई है. नियामकों के निर्णय और अन्य वजहों से बुनियादी ढांचा क्षेत्र से संबंधित कई परियोजनाएं लटक गईं और बैंकों का एनपीए बढ़ता गया.
दूसरी बात यह है कि बैंकों के कर्ज के विकास दर में 2014-15 से लगातार कमी आ रही है. 2016-17 में यह 8.2 फीसदी रही. कृषि और इससे संबंधित क्षेत्रों में तो कर्ज में और कमी आई है. साल भर पहले जहां ऐसे कर्जों की विकास दर 15.9 फीसदी थी, वहीं सितंबर, 2017 में यह 5.8 फीसदी रही. सेवा क्षेत्र में भी यही स्थिति है.
अब सवाल उठता है कि ये दोनों चीजें आपस में कैसे जुड़ी हुई हैं और कर्ज की विकास दर में कमी के लिए सिर्फ एनपीए जिम्मेदार है. सरकारी दावों के बावजूद पिछले छह तिमाही में विकास दर नीचे आई है. अप्रैल-जून 2017 में जीडीपी 5.7 फीसदी रही. यह पिछले तीन साल में सबसे कम है. नोटबंदी और बगैर तैयारी के जीएसटी लागू करने से आर्थिक स्थिति और खराब हुई. ऐसी स्थिति में बैंकों में पूंजी डालने के बावजूद निजी कंपनियां बैंकों के पास नए कर्ज के लिए आएं, इसकी संभावना कम है.
कुछ लोग सरकार के इस निर्णय की तुलना किसानों की कर्ज माफी से कर रहे हैं. हमें पहले बताया गया कि कर्ज माफी से इमानदारी की संस्कृति खराब होगी. कर्ज नहीं चुका पाने वाले लोगों की सूची सार्वजनिक करने को लेकर अनिच्छा देख चुके हैं. ऐसे समय में जब बड़ी कंपनियां कर्ज नहीं चुका पा रही हैं और कर्ज वसूली की प्रक्रिया बेहद धीमी है तो फिर सरकार क्या संकेत दे रही है? क्या बैंकों में सरकार द्वारा पैसा लगाया जाने में काई नैतिक समस्या नहीं आई? इसे लेमन समाजवाद कहा जाता है. जहां नुकसान को समाजवादी बना दिया जाता है और लाभ को पूंजीवादी. ये बाॅन्ड कौन खरीदेगा और अगर बैंक ही खरीदेंगे तो इससे क्या निजी उधारी हतोत्साहित नहीं होगी? इन सवालों के जवाब अभी आने हैं.
बैंकिंग संकट को सुलझाने के प्रति लोगों की उम्मीद अलग रही है. इन्साॅल्वेंसी और बैंकरप्शी कोड से लोगों को काफी उम्मीदें थीं. लेकिन स्टील, बिजली और दूरसंचार क्षेत्र की मुश्किलें कम नहीं हो रही हैं. 2017-18 का बजट बैंकिंग क्षेत्र को लेकर बहुत प्रभावी नहीं था. तो फिर अब बैंकों में पूंजी लगाने का निर्णय क्यों लिया गया?
अब जो दो राज्यों में चुनाव हैं और अर्थव्यवस्था बुरी हालत में है तो क्या यही वह आर्थिक पैकेज है जिसकी बात चल रही थी? बैंकों को पुनर्संगठित करने की योजना का क्या हुआ? सरकार का यह निर्णय जितने जवाब देता है उससे अधिक सवाल खड़े करता है और यह इस निर्णय की बहुत बड़ी खामी है.