चीन के साथ उन्मादी शत्रुता
अमेरिकी मदद की न के बराबर उम्मीदों के बीच क्या मोदी चुपचाप भारतीय सैनिकों को पीछे हटने के लिए कह देंगे?
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26 जून को भारतीय सैनिकों ने सिक्किम क्षेत्र में भारत-चीन सीमा को पार करके डोकलम में चीन द्वारा बनाई जा रही सड़क परियोजना को रोकने की कोशिश की. उसी दिन भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वाशिंगटन में डोनल्ड ट्रंप प्रशासन की ‘अमेरिका फस्र्ट’ नीति पर भारत के मतभेदों को कम महत्व देने की कोशिश करते दिखे. न सिर्फ प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल बल्कि भारत के बड़े मीडिया समूह भी इसी बात को लेकर चिंतित दिखे कि कहीं भारत-अमेरिका रणनीतिक साझीदारी को कम नहीं कर दिया जाए. क्योंकि भारत के सत्ताधारी वर्ग को यह लगता है कि वैश्विक रणनीतिक भागीदारी से ही भारत अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा कर सकता है. प्रधानमंत्री के करीबी हिंदुत्वादी सोच के लोग चीन के साथ विवाद का तीसरा केंद्र बनाना चाह रहे थे. पहले उत्तर पूर्व में मैकमोहन लाइन और उत्तर पश्चिम में अक्साई चीन को लेकर विवाद है. ऐसा सोचा गया होगा कि इससे साम्राज्यवादी अमेरिका से भारत का चीन विरोधी गठजोड़ मजबूत होगा. लेकिन क्या यह कुटिल कार्ययोजना काम करेगी?
2014 में जब मोदी सरकार सत्ता में आई तो बराक ओबामा प्रशासन ने भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा का इस्तेमाल अपने पक्ष में करना शुरू किया. इसके तहत अमेरिका चीन के साथ अपनी प्रतिद्वंदिता में भारत को आगे कर देना चाहता है. अमेरिका ने भारत का अहम रक्षा साझेदार का दर्जा दिया. इसके तहत भारत को कई रक्षा प्रौद्योगिकीयों के देने की बात की गई. बदले में उनके साथ एक ऐसा समझौता हुआ जिसके तहत अमेरिकी सेना भारतीय जमीन का इस्तेमाल असैन्य आवाजाही या रसद के लिए कर सकती है.