लोकतंत्र के खिलाफ संसद
वित्त विधेयक, 2017 लोकतंत्र के मूल आधारों को धता बताने वाला है।
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अंतिम समय में कुछ संशोधनों को डालने के बाद सरकार ने जिस तरह से वित्त विधेयक, 2017 के जरिए 40 कानूनों में संशोधन कर दिया, उसने स्पष्ट संकेत दिया है। मतलब साफ है कि सरकार अपने विरोधियों से बातचीत में यकीन नहीं करती। सरकार का स्वतंत्र न्यायपालिका में यकीन नहीं है। सरकार आयकर अधिकारियों की तलाशी और जब्ती संबंधी अधिकारों पर बहस नहीं करना चाहती। यह सरकार तो चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता को लेकर बड़ी-बड़ी बातें करती है लेकिन इसने ऐसा संशोधन लाया है कि जिससे भारतीय राजनीति में काॅरपोरेट घरानों की भूमिका काफी अधिक बढ़ने का अंदेशा है।
वित्त विधेयक, 2017 को लोकसभा में धन विधेयक के तौर पर पेश किया गया। ऐसे विधेयकों में अंतिम निर्णय का अधिकार लोकसभा के पास होता है। सरकार ने इस स्थिति का फायदा उठाकर कई कानूनों में संशोधन का प्रस्ताव किया है। इनमें एक संशोधन आधार को लेकर भी है। जबकि आधार कानून को धन विधेयक के तौर पर पारित करने के सरकार के निर्णय को राज्यसभा सांसद जयराम रमेश ने उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी है। इस पर सुनवाई अभी होनी है। संविधान के अनुच्छेद 110.3 के मुताबिक किसी भी विधेयक को धन विधेयक तय करने का अंतिम अधिकार लोकसभा अध्यक्ष का होता है। अनुच्छेद 110.1 के मुताबिक किसी भी विधेयक को धन विधेयक तब निर्धारित किया जा सकता है जब उसमें सिर्फ कर, सरकार की उधारी और गारंटी, सरकारी खर्च या फिर अन्य किसी ऐसे मामले से संबंधित कोई चीज हो। हर साल बजट प्रक्रिया के तहत पारित किया जाना वाला वित्त विधेयक अमूमन इस परिभाषा में फिट बैठता है। हालांकि, वित्त विधेयक, 2017 कई मामलों में इस परिभाषा से बाहर जाते दिखता है।
उदाहरण के तौर पर इसके जरिए कंपनी कानून, 2013 की धारा 182 में संशोधन किया गया है। इस धारा में यह प्रावधान था कि कोई भी गैर सरकारी कंपनी पिछले तीन साल के मुनाफे के औसत का 7.5 फीसदी तक ही राजनीतिक पार्टियों को चंदे के तौर पर दे सकती है। अब सरकार ने इस सीमा को हटा दिया है। अब वे कितना भी राजनीतिक चंदा दे सकती हैं। पहले यह प्रावधान था कि कंपनियों को यह बताना पड़ता था कि किस राजनीतिक दल को उन्होंने कितना चंदा दिया है। इस बार के संशोधन से यह बाध्यता खत्म कर दी गई है।
1985 से पहले इस तरह का चंदा भारत में प्रतिबंधित था। इसमें 1960 से 1969 का दौर अपवाद है। कंपनी कानून, 1956 में 1985 में संशोधन करके इसकी शुरुआत हुई। चुनाव सुधार को लेकर गठित कई समितियों ने यह कहा है कि इस तरह की फंडिंग को कंपनियां निवेश के तौर पर देखेंगी और उसके बाद भविष्य में इस पर मुनाफा कमाना चाहेंगी। यह कहा गया है कि ऐसे चंदों की वजह से सरकार पर संबंधित कंपनी के पक्ष में काम करने का दबाव बनाया जा सकता है। नए संशोधनों से कारोबारी घरानों और राजनीतिक दलों के गठजोड़ को बढ़ावा मिलेगा। इससे राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली और भी अपारदर्शी होगी। हालांकि, राज्यसभा ने इस संशोधन को निरस्त करने का प्रस्ताव पारित किया था लेकिन लोकसभा ने इसे नहीं माना। इसी तरह का एक संशोधन वित्त विधेयक, 2016 में करते हुए सरकार ने विदेशी कंपनियों की परिभाषा में बदलाव किया था. यह बदलाव तब किया गया था जब एक अदालत ने यह कहा कि भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस जैसी पार्टियों को लंदन की वेदांता जैसी कंपनियों के जरिए अवैध चंदा दिया गया था।
कुछ ट्राइब्यूनल्स का भी दूसरे में विलय करने संबंधी संशोधन भी चिंता की बात है। इससे ट्राइब्यूनल्स की मूल भावना को ही चुनौती दी जा रही है। इनकी विशेषज्ञता खतरे में है और पहले से ही बोझ तले ट्राइब्यूनल्स पर और बोझ बढ़ेगा। सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार इन ट्राइब्यूनल्स में नियुक्ति, काम की शर्तें और सदस्यों को हटाए संबंधित अधिकार अपने हाथ में करना चाहती है। इससे ऐसी संस्थाओं की स्वायत्ता खतरे में पड़ेगी। 2014 में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि ऐसी संस्थाओं की नियुक्ति प्रक्रिया कार्यपालिका के दखल से मुक्त होनी चाहिए। कई बार सरकार खुद इन ट्राइब्यूनल्स के मामलों में पक्षकार होती है। ऐसे में यह हितों के टकराव का मामला भी है। हालांकि, वित्त मंत्री ने राज्यसभा में कहा है कि सरकार इन मामलों में न्यायपालिका से सलाह-मशविरा करेगी लेकिन यह पर्याप्त नहीं है।
वित्त विधेयक का एक चिंताजनक पहलू आयकर कानून, 1961 में संशोधन भी है। इसके जरिए आयकर अधिकारियों के अधिकारों को काफी विस्तार दिया गया है। नए संशोधन के तहत अगर आयकर अधिकारियों को लगता है कि वे तलाशी या जब्ती कर सकते हैं तो वे ऐसा करने के लिए स्वतंत्र रहेंगे। वह भी 1962 के पूर्व प्रभाव से। अगर अधिकारियों के इस कार्रवाई को कहीं चुनौती दी जाए तो वे वजह बताने के लिए बाध्य नहीं होंगे। आयकर अधिकारियों को अब इतने अधिकार मिल गए हैं कि वे किसी को भी परेशान कर सकते हैं। इन संशोधनों को निरस्त करने वाले राज्यसभा के संशोधनों को लोकसभा ने खारिज कर दिया।
इन संशोधनों के लिए अपनाए गए तरीके ने भारतीय लोकतंत्र में द्विसदनात्मक व्यवस्था पर सवाल खड़े कर दिए हैं। इसने संसद की उच्च सदन की भूमिका पर भी सवाल खड़े किए हैं। राज्यसभा में भाजपा के पास बहुमत नहीं है। इसलिए इस सरकार द्वारा राज्यसभा को बाइपास करके कानून पारित करवाना बेहद सामान्य हो गया है। जबकि राज्यसभा की व्यवस्था ही इसलिए है कि लोकसभा पर एक अंकुश रहे। सरकार अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जाकर सरकार न सिर्फ लोकतांत्रिक मूल्यों का उल्लंघन कर रही है बल्कि संवैधानिक भावनाओं से भी खिलवाड़ कर रही है।