ISSN (Print) - 0012-9976 | ISSN (Online) - 2349-8846

अव्यावहारिक उम्मीदों का बोझ

अव्यावहारिक उम्मीदें जगाकर नरेंद्र मोदी ने एक तरह से संघ के एजेंडे को ही आगे बढ़ाने का काम किया है

The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को मिली भारी जीत को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की निजी उपलब्धि के तौर पर पेश किया जा रहा है। इसने गरीबों में बेहतर भविष्य की उम्मीदें जगाई है। इस सरकार की आर्थिक नीतियों की दिशा को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि रोजगार के नए अवसर पैदा करना मुश्किल होगा। ऐसे में मोदी के सामने हिंदू राष्ट्रवाद की राजनीति पर लौटने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होगा। इसी की बात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अक्सर करता है। मोदी को यह लगता है कि 2019 में उन्हें और बड़ी जीत मिलेगी और वे और बड़े नेता बनकर उभरेंगे। उनके विरोधियों का एकजुट होना मुश्किल दिख रहा है।

देश की सबसे अधिक आबादी वाले राज्य में भाजपा ने 80 फीसदी विधानसभा क्षेत्रों में जीत हासिल की। उत्तर प्रदेश के मतदाताओं के लिए मोदी भविष्य की उम्मीद जगाने वाले हैं। उनकी उर्जावान और भ्रष्टाचार से मुक्त नेता की छवि उन्हें गरीबों के बीच लोकप्रिय बनाती है। 1971 में जब इंदिरा गांधी ने अलग बांगलादेश बनावाया था तो उनकी लोकप्रियता चरम पर थी। उसके बाद से पहली बार ऐसा हुआ है कि कोई नेता इतना लोकप्रिय हुआ है। जिस तरह से नरेंद्र मोदी विधानसभा चुनावों में प्रचार करते हैं, उतनी सक्रियता किसी दूसरे प्रधानमंत्री ने इन चुनावों में कभी नहीं दिखाई। कभी किसी राजनीतिक पार्टी ने मुस्लिमों को इतनी बुरी तरह से उपेक्षित नहीं किया जितना इस बार भाजपा ने किया। जबकि प्रदेश में मुस्लिमों की आबादी तकरीबन 20 फीसदी है। मुसलमानों को स्पष्ट संदेश यह दिया गया कि आप किसी भी हालत में हमें वोट नहीं देना जा रहे हैं इसलिए हम एक भी मुस्लिम उम्मीदवार आखिर क्यों उतारें?

मोदी और उनके खासमखास भाजपा अध्यक्ष अमित शाह चुनाव प्रबंधन और मतदान के मौजूदा ढांचे को समझते हैं। उन्हें मालूम है कि जीतने वाले को हर चीज मिल जाती है और हारने वाले का सब कुछ चला जाता है। उत्तराखंड में भी भाजपा की जीत उसी तरह की रही जिस तरह की उत्तर प्रदेश में। हालांकि, 2000 में उत्तराखंड में अस्तित्व में आने के बाद इस राज्य में एक बार भाजपा तो एक बार कांग्रेस सत्ता में रहती आई है। जिन राज्यों में इस बार चुनाव हुए, वे एक-दूसरे से अलग हैं। लेकिन सब में एक बात यह समान रही कि हर जगह सत्ताधारी पार्टी हारी। सत्ताधारी पार्टी को लेकर विरोध सबसे कम मणिपुर में था। वहां कांग्रेस के ओकरम इबोबी सिंह मुख्यमंत्री के तौर पर तीन कार्यकाल पूरा कर रहे थे। मणिपुर और गोवा में कांग्रेस की कामयाबी को भाजपा ने झटक लिया। इसके लिए भाजपा ने उन्हीं तरीकों का इस्तेमाल किया जो उसने कांग्रेस से सीखे हैं। यह बात अलग है कि इस बार कांग्रेस ऐसा करने में अक्षम रही।

पंजाब में 10 सालों तक सत्ता में रहने के बाद यह माना जा रहा था कि शिरोमणि अकाली दल और भाजपा गठबंधन की हार तय है। ऐसा ही हुआ। लेकिन इस गठबंधन को आम आदमी पार्टी के मुकाबले अधिक वोट मिले। इसके बावजूद आम आदमी पार्टी ने अधिक सीटें जीतीं। हालांकि, आप अपने प्रदर्शन से नाखुश है। अकाली-भाजपा गठबंधन से नाराज लोगों ने आप पर कांग्रेस को वरीयता दी। आप के खिलाफ जो बातें गई, उनमें उग्र वर्ग से उसकी नजदीकी का आरोप, दिल्ली केंद्रित होना और अनुभवहीनता प्रमुख हैं। नोटबंदी का पंजाब में कोई खास असर नहीं दिखा। मोदी ने नोटबंदी के फैसले को बोझ से अवसर में तब्दील कर लिया। आखिर कैसे?

उत्तर प्रदेश में अपने आखिरी चुनावी सभा में नरेंद्र मोदी ने कहा कि संभव है कि उनसे गलतियां हो जाएं लेकिन उनकी नीयत पर संदेह नहीं किया जाना चाहिए। नोटबंदी से न तो काले धन की समस्या से राहत मिलेगी और न ही नकली नोटों का आतंकवादियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने की समस्या दूर होगी। भारत की नगदी पर निर्भरता धीरे-धीरे कम होगी। लेकिन मोदी ने अपनी शैली से अपने विरोधियों को चित कर दिया। नोटबंदी से गरीबों को ऐसा लगा कि बैंक के बाहर कतार में उनके साथ मध्य वर्ग और अमीर लोग भी खड़े हैं। राजनीतिक तौर पर इसके संकेत पर बहुत लोगों ने ध्यान नहीं दिया बल्कि नोटबंदी के दुष्प्रभावों की ही चर्चा करते रहे। गरीबों की जिंदगी हमेशा मुश्किल रही लेकिन मोदी यह संदेश देने मे कामयाब रहे कि अब अमीरों को भी दिक्कत हो रही है। आर्थिक तौर पर पिछड़े उत्तर प्रदेश में इसने अपना असर दिखाया।

नोटबंदी से सबसे अधिक परेशान गरीब ही हुए लेकिन इस प्रकाशन के लेखकों समेत नोटबंदी के आलोचकों ने इसके दूसरे पक्ष पर ध्यान नहीं दिया। इस बात की खूब चर्चा हुई कि पूंजीवादी नरेंद्र मोदी और समाजवादी इंदिरा गांधी की तानाशाही प्रवृत्तियां एक तरह की हैं। लेकिन दोनों में कई अहम अंतर भी हैं। गरीबी हटाओ के नारे ने इंदिरा गांधी को उसी कांग्रेस पार्टी में बेहद लोकप्रिय बना दिया जिस कांग्रेस पार्टी का विभाजन दो बार इंदिरा गांधी ने कराया था। बैंकों के राष्ट्रीयकरण और प्रिवी पर्स को खत्म करना भी उनके पक्ष में गया था। प्रधानमंत्री मोदी अब गरीबी हटाने की बात नहीं कर रहे बल्कि उन्हें बेहतर जीवन के अवसर देने की बात कर रहे हैं। 80 फीसदी हिंदू आबादी की पहचान के साथ संघ और भाजपा राष्ट्रवाद से जोड़ती रही है। अब संघ परिवार के हिंदुत्व एजेंडे को विकास से जोड़ दिया गया है। मोदी अब यह कह रहे हैं कि वे गरीबों को मुफ्त की चीजें नहीं देना चाहते बल्कि उन्हें रोजगार देना चाहते हैं। वे पिछली सरकार द्वारा शुरू की कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन को ठीक करने की वकालत करते हैं। लेकिन अंतर जुमलों में दिखता है।

भारत समेत पूरी दुनिया में पूंजीवादी व्यवस्था में बढ़ती गैरबराबरी और रोजगार विहीन विकास समान है। बढ़ती महंगाई के दबाव में निजी क्षेत्र रोजगारों का सृहन नहीं कर पाता। ऐसे में मोदी के लिए भी अच्छे दिन के वादे को पूरा करना मुश्किल होगा। जैसे-जैसे लोग यह समझेंगे कि ये वादे अव्यावहारिक हैं, वे राजनीति को मेरे साथ या मेरे विरोध की लाइन पर धु्रवीकरण करने की कोशिश करेंगे। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को राष्ट्रवाद के नाम पर कुचलने की कोशिश होगी। लोकप्रियता पाने के लिए संभव है कि वे मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से मुक्ति दिलाने के नाम पर समान नागरिक संहिता लाने और विधानसभाओं और लोकसभा में महिलाओं को आरक्षण दिलाने की कोशिश करें। 2019 के बाद भाजपा को राज्यसभा में बहुमत मिल सकता है। ऐसे में संविधान की प्रस्तावना को संशोधित करके इससे धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्दों की हटाने की कोशिश भी की जा सकती है।

भाजपा समर्थक उत्तर प्रदेश के नतीजों को जाति की राजनीति की हार के तौर पर पेश कर रहे हैं। कई गैर-जाटव दलित जातियां बहुजन समाज पार्टी के साथ नहीं गए। गैर-यादव अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों को लगा कि समाजवादी पार्टी की सरकार यादवों के पक्ष में काम करती रही है। हालांकि, इन दोनों पार्टियों के पारंपरिक समर्थकों ने इन्हें नहीं छोड़ा। भाजपा ने जो जातीय समीकरण बनाए वह काम आ गया। भाजपा छोटी जातियों का गठजोड़ बनाने में कामयाब रही। बसपा प्रमुख मायावती का निकट राजनीतिक भविष्य थोड़ा अंधकारमय लगता है। संभव है कि वे अपनी राज्यसभा सीट बचाने में कामयाब नहीं हो पाएं। अखिलेश यादव को भी अपनी खोयी जमीन वापस पाने में काफी वक्त लगेगा।

कांग्रेस उपाध्यक्ष अब भी इनकार की मुद्रा में ही हैं। उन्हें अब भी यह नहीं दिख रहा है कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा ने उनकी पार्टी की जगह ले ली। पंजाब में कांग्रेस की कामयाबी का श्रेय राहुल को नहीं दिया जाना चाहिए। क्या कांग्रेस फिर से खड़ा हो पाएगी और गांधी-नेहरू परिवार की कोटरी से बाहर निकलकर जमीनी स्तर पर काम कर पाएगी? इसकी संभावनाएं संदेह के घेरे में हैं। लेकिन कांग्रेस अगर गुमानमी में नहीं खोना चाहती है तो उसके पास कोई विकल्प नहीं है। लेकिन कांग्रेस मुक्त भारत के नारों के बीच भाजपा के लिए अनुकूल स्थिति यही है कि उसके विपक्षी के तौर पर कांग्रेस और राहुल सामने रहें। 

भाजपा के दूसरे विरोधी यहां से कहां जाते दिख रहे हैं? आम आदमी पार्टी ने पंजाब में खराब प्रदर्शन किया और गोवा में भी। अब उसकी कड़ी परीक्षा दिल्ली नगर निगम चुनावों में होगी। यहां भाजपा ने अपने किसी भी जीते हुए पार्षक को टिकट नहीं देने की घोषणा की है। अरविंद केजरीवाल को अपनी राष्ट्रीय मौजूदगी दर्ज कराने के एजेंडे पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। भाजपा बंगाल में वाम दलों को हाशिये पर डालकर ममता बनर्जी की अगुवाई वाले तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख विपक्षी के तौर पर उभरने की कोशिश करेगी। संभव है कि अब बंगाल राजनीतिक हिंसा की प्रयोगशाला बने। यह भी संभव है कि यह सांप्रदायिक रंग भी ले ले। अभी यह कहना मुश्किल है कि भाजपा का मुकाबला करने के लिए पूरा विपक्ष एक हो जाएगा और बिहार की तरह कोई महागठबंधन बन जाएगा। सप और बसपा, तृणमूल कांग्रेस, एआईडीएमके और डीएमके आदि के बारे में यह कहना जल्दबाजी होगी कि मोदी के खिलाफ ये सब आपसी मतभेदों को भुलाकर एकजुट हो जाएंगे। विपक्ष के नेता के तौर पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का उभार हो सकता है। वे अब अपनी किस्मत पर खुश हो रहे होंगे क्योंकि उन्होंने नोटबंदी की आलोचना करने में वक्त लगाया। उन्होंने आलोचना भी की तो दबी जुबान में।

मोदी का विरोध जो लोग करना चाह रहे हैं उनके लिए आपसी मतभेदों को भुलाना सबसे बड़ी चुनौती है। इस बात की मजबूत संभावना दिख रही है कि भाजपा गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करे। संभव है कि मोदी आने वाले दिनों में अपने वादों से लोगों का ध्यान हटाकर हिंदुत्व और बेहतर भविष्य की उम्मीद की ओर ले जाएं। उनके विरोधियों की आपसी समस्याएं भी उनके पक्ष में काम करेंगी।

 

Updated On : 13th Nov, 2017
Back to Top